15 August 2020 03:29 PM
-अरण्य रंजन, देहरादून, उत्तराखंड
कोरोना संकट के दौरान गांव की ओर लौटने वाले युवाओं की संख्या बढ़ी है। गांवों में इन दिनों भरा-पूरा माहौल दिखाई दे रहा है। पलायन के कारण दुर्दिन देख रहे गांव में अपने लोगों की यह हरियाली कब तक दिखाई देगी, यह सवाल उत्तराखंड की सरकार, समाज और शहर से लौटे युवाओं के सामने यक्ष प्रश्न की तरह खड़ा है। बड़ी संख्या में गांव की ओर लौटे युवाओं से सभी आशा भरी नजरों से देख रहे हैं, तो दूसरी ओर युवा भी गांव में ही स्थाई रोजगार के विकल्पों को तलाश रहे हैं। राज्य पर भी युवाओं को गांव में ही रोकने के लिए योजनाएं बनाने का दबाव है।
मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना चर्चा में है, जिसमें युवाओं को स्वरोजगार शुरू करने के लिए आसान ऋण उपलब्ध करवाए जाने का प्रावधान है। उत्तराखंड ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग के आंकड़ों के अनुसार अप्रैल 2020 तक राज्य के दस पर्वतीय जिलों में कुल 59360 लोग शहरों से गांवों की ओर लौटे हैं।
हिंदुस्तान टाइम्स में 11 मई, 2020 को राज्य सरकार के हवाले से खबर छपी थी, जिसमें सरकार की ओर से ढाई लाख लोगों के वापस उत्तराखंड लौटने की बात कही गई है। राज्य सरकार के प्रवक्ता और कबीना मंत्री मदन कौशिक के अनुसार मई तक तकरीबन एक लाख सत्तासी हजार से अधिक लोगों ने उत्तराखंड वापस आने के लिए पंजीकरण करवाया है। जिस राज्य और क्षेत्र से लोगों के जाने के आंकड़े ही दिखते थे। वहां वापसी के लिए इतनी संख्या में पंजीकरण कराना एक सुखद शुरुआत है। जनगणना 2011 में जहां पौड़ी और अल्मोड़ा जिले की जनसंख्या में ऋणात्मक परिवर्तन हुआ, वहीं अन्य पर्वतीय जिलों की स्थिति में भी कोई सकारात्मक बदलाव नहीं दिखता है। एनएसएसओ 2010 के आंकड़ों के अनुसार शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में सर्वाधिक पलायन वाले राज्यों में उत्तराखंड सबसे ऊपर है। गांवों घर से इतनी बड़ी संख्या में पलायन होने पर चुभने वाला सूनापन देखने वाली आंखें अचानक से इतनी रौनक अपने आसपास देख रही हैं। उनकी आखों में उम्मीद के दिये जलना स्वाभाविक है।
लाखों की संख्या में लौटे लोगों पर उम्मीदों का बोझ डालने से पहले उनके पलायन के कारणों को भी समझना होगा। ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग के अनुसार रोजगार का अभाव, शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, बिजली, पानी और सड़क जैसे बुनियादी ढांचों का अभाव इस राज्य से पलायन का सबसे बड़ा कारण रहा है। ऐसे में शहरों से लौटे इन लोगों को उम्मीदों और आकांक्षाओं का वाहक समझने से पहले उनकी मनःस्थिति को समझना आवश्यक है। जिन परिस्थितियों में पहाड़ से यहां का युवा पलायन करने के लिए प्रेरित हुआ है, उन स्थितियों में कोई खास बदलाव नहीं आया है। मजबूरियों ने उसको घर से बाहर शहरों की ओर धकेला था तो कुछ खास मजबूरियां उसे वापस लौटने के लिए बनी हैं। यह वापसी स्वेच्छा से नहीं हुई है बल्कि कोरोना संकट के कारण खास तरह की परिस्थितियों ने इन लोगों को अपने गांव की ओर लौटने को विवश किया है।
शहरों से लौटे युवाओं के साथ क्वारेन्टाइन सेंटरों में बातचीत के दौरान भी इन्होंने अपनी मिट्टी को छोड़ने के पीछे एक अदद रोजगार को ही मुख्य कारण माना है ताकि घर की बुनियादी जरूरतों को पूरा किया जा सके। कुछ युवाओं को शहरी जीवन भी रास आ रहा है तो कुछ यहीं गांव में रुककर आजीविका के विकल्पों पर सोच रहे हैं। जो युवा गांव में रुकने का मन बना रहे हैं, अब वह गांव की स्थितियों, व्यवहार और जनजीवन को समझने की कोशिश भी कर रहे हैं। गांव या स्थानीय स्तर पर आजीविका के लिए अधिकांश युवा सरकार व समाज से सहयोग की भी अपेक्षा कर रहे हैं। इन युवाओं ने बातचीत में स्वीकार किया कि जितनी आमदनी वह शहर में करते थे, उतनी गांव में नहीं हो पाएगी। इस यथार्थ को समझते हुए भी शहर से कम आमदनी परंतु जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने लायक आय की अपेक्षा अवश्य है। शहरों से लौटे कई युवाओं ने यह भी स्वीकार किया कि अगर अपेक्षित रोजगार और आय यहां पर नहीं मिल पाया तो वे दुबारा शहरों को पलायन करने के लिए मजबूर होंगे।
शहरों से लौटे लगभग सभी युवा किसी न किसी क्षेत्र में दक्ष हैं। यही समय है चुनौतियों को एक बड़े अवसर में बदलने का। शहरों से लौटे युवाओं को स्थानीय गांव-समाज व सरकार उम्मीदें बहुत अधिक हैं और विकल्पों को अभी तैयार किया जाना है। हम सभी के पास बहुत ज्यादा समय नहीं है, जब हम पहाड़ के जीवन में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। हमारे पास शहरों से लौटे एक बड़ी संख्या में दक्ष लोगों का क्रियाशील समूह है। इस समूह की कुशलता का खाका तैयार करके पंचायत और विकासखण्ड स्तर पर रोजगार के लिए नियोजन करके इन युवाओं के लिए आजीविका का विकल्प तैयार करना होगा। इस कार्य में पंचायतों और ग्राम स्तरीय संगठनों की अहम् भूमिका होगी। पंचायतें अपने स्तर से युवाओं की दक्षता व कुशलता को सूचिबद्ध करके उनके स्वरोजगार और आजीविका के विकल्पों को संकलित करने का कार्य वास्तविकता के साथ कर सकती है। स्थानीय स्तर पर आजीविका के विकल्पों को तैयार करने में पंचायतें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। युवाओं के द्वारा खेती किसानी को सुलभ परंतु चुनौतीपूर्ण विकल्प के रूप में आजीविका के लिए सर्वथा उपयुक्त विकल्प माना गया है। खेती और उससे जुड़े आजीविका के विकल्पों को आजीविका बनाने में पंचायतें बेहतर भूमिका निभा सकती हैं। अभी बहुत उम्मीदें पालना और बड़ी अपेक्षा रखना जल्दबाजी होगी परंतु कहीं से शुरुआत तो करनी ही पड़ेगी।
अफसोस की बात यह है कि पर्यटन का प्रमुख केंद्र होने के बावजूद उत्तराखंड अपने ही युवाओं को एक बेहतर और स्थाई रोजगार देने में नाकाम रहा है। देश के पश्चिम और दक्षिण राज्यों ने जहां अपने पर्यटन और पर्यटकों से होने वाली आय को युवाओं के रोजगार में परिवर्तित किया है वहीं अपने गठन के 20 साल बाद भी उत्तराखंड ऐसी कोई ठोस नीति भी बनाने में असफल रहा है। ऐसे में युवा शक्ति का पलायन होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन कोरोना संकट काल राज्य के लिए इस मोर्चे पर वरदान साबित हो सकता है। नौजवान फिर से अपनी मिट्टी की तरफ लौट आए हैं। जरूरत है रोजगार सृजन की एक ठोस नीति बना कर उसे धरातल पर क्रियान्वित करने की ताकि दिल्ली, मुंबई, सूरत और चंडीगढ़ जैसे शहरों की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने वाले उत्तराखंड के युवा अपनी शक्ति और सामथ्र्य से अपने राज्य के सर्वांगीण विकास में योगदान दे सकें। वास्तव में कोरोना संकट में लौटे इन युवाओं के सामने ही नहीं बल्कि सरकार और समाज के सामने भी चुनौती को अवसर में बदलने की चुनौती है। (चरखा फीचर)
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