15 June 2020 04:31 PM
-भारत डोगरा
हाल के समय में कोविड-19 के संदर्भ में विश्व स्तर पर बहुत चर्चा हुई है कि ऐसी महामारी का सामना करने के लिए विभिन्न देशों और स्थानीय समूहों की तैयारी को कैसे मजबूत किया जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर कहें तो भारत सरकार ने महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता पर हाल के समय में नए सिरे से जोर दिया है। महामारी के संदर्भ में विभिन्न साज-समान, दवाओं, दवाओं के कच्चे माल व वैक्सीन में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना व सार्वजनिक उद्यमों को भी मजबूत करना महत्त्वपूर्ण है। इसके साथ ग्रासरूट स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं व समुदायों की तैयारी को मजबूत करना जरूरी है। अनेक वैज्ञानिकों ने कहा है कि जहां समुदायिक भागेदारी अच्छी होगी वहां महामारी का सामना बेहतर ढंग से किया जा सकेगा। इसका एक उदाहरण केरल के सफल प्रयासों के रूप में सामने है। ध्यान रहे कि केरल में गांव व कस्बे स्तर पर स्वास्थ्य सेवाएं पहले से मजबूत हैं और पंचायती राज भी मजबूत है।
आठ वरिष्ठ भारतीय वैज्ञानिकों ने प्रतिष्ठित इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में एक समीक्षा लेख ‘द 2019 नोवल कोरोना वायरस डीजीज (कोविड-19) पेंडमिक - ए रिव्यू ऑफ द करंट एविडेंस’ शीर्षक से लिखा है। इन वैज्ञानिकों में डा. प्रनब चैटर्जी (मुख्य लेखक), नाजिया नागी, अनूप अग्रवाल, भाबातोश दास, सयंतन बनर्जी, स्वरूप सरकार, निवेदिता गुप्ता और रमन आर. गंगाखेड़कर शामिल हैं। सभी आठ वैज्ञानिक प्रमुख संस्थानों से जुड़े हैं। यह समीक्षा लेख वैश्विक संदर्भ में लिखा गया है व विकासशील देशों की स्थितियों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है।
ऊपर से आए आदेशों पर आधारित समाधान के स्थान पर इस समीक्षा लेख ने समुदाय आधारित, जन-केंद्रित उपायों में अधिक विश्वास जताया है। आगे वैश्विक संदर्भ में लिखे गए इस समीक्षा लेख ने कहा है कि ऊपर से लगाए प्रतिबंधों के अर्थव्यवस्था, कृषि व मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल दीर्घकालीन असर बाद में सामने आ सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय चिंता की पब्लिक हैल्थ इमरजेंसी के तकनीकी व चिकित्सा समाधानों पर ध्यान केंद्रित करते हुए स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को मजबूत करने व समुदायों की क्षमता मजबूत करने के जन केंद्रित उपायों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। इन वैज्ञानिकों ने कोविड-19 के विश्व स्तर के रिसपांस को कमजोर और अपर्याप्त बताते हुए कहा है कि इससे वैश्विक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की तैयारी की कमजोरियां सामने आई हैं व पता चला है कि विश्व स्तर के संक्रामक रोगों का सामना करने की तैयारी अभी कितनी अधूरी है।
इस समीक्षा लेख ने कहा है कि कोविड-19 का जो रिस्पांस विश्व स्तर पर सामने आया है वह मुख्य रूप से एक प्रतिक्रिया के रूप में है व पहले की तैयारी विशेष नजर नहीं आती है। शीघ्र चेतावनी की विश्वसनीय व्यवस्था की कमी है। अलर्ट करने व रिस्पांस व्यवस्था की कमी है। अलग रखने की पारदर्शी व्यवस्था की कमी है। इसके लिए सामुदायिक तैयारी की कमी है। ऐसी हालत में खतरनाक संक्रामक रोगों का सामना करने की तैयारी को बहुत कमजोर ही माना जाएगा।
इन वैज्ञानिकों ने कहा है कि अब आगे के लिए विश्व को संक्रामक रोगों से अधिक सक्षम तरीके से बचाना है तो हमें ऐसी तैयारी करनी होगी जो केवल प्रतिक्रिया आधारित न हो अपितु पहले से व आरंभिक स्थिति में खतरे को रोकने में सक्षम हो। यदि ऐसी तैयारी विकसित होगी तो लोगों की कठिनाईयों व समस्याओं को अधिक बढ़ाए बिना समाधान संभव होगा।
आज पूरी दुनिया में इस बारे में बहस छिड़ी है कि लंबे लाॅकडाउन जैसे कठोर कदमों को उठाना जरूरी है कि नहीं। अतः विकल्पों को सामने रखना जरूरी है और प्रतिष्ठत वैज्ञानिक इसके लिए सामने आते हैं तो यह और भी अच्छा है। कुल मिलाकर यही लगता है कि जन-केंद्रित , समुदाय आधारित नीतियां अपनाकर उन बहुत सी हानियों और क्षतियों से बचा जा सकता है जो लाॅकडाउन के असर के रूप में आज सामने आ रही हैं।
समुदाय आधारित तैयारी यदि मजबूत होगी तो उससे देश की आत्मनिर्भरता को बढ़ाने में भी मदद मिलेगी। इसके अतिरिक्त वैक्सीन जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में तकनीकी ज्ञान व उत्पादन दोनों स्तरों पर आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ना चाहिए।
वैक्सीन देश की वास्तविक जरूरतों के अनुकूल होने चाहिए। इनके महत्त्व को देखते हुए इनके उत्पादन में सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में महत्त्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए। यदि ऐसा न हुआ तो भारत की सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों के लिए बड़ी जिम्मेदारियां संभालना कठिन हो जाएगा। पहले ही इसकी बहुत क्षति हो चुकी है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वैक्सीन संवेदनशील क्षेत्र में सेफ्टी यानी सुरक्षा को सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए। जहां कोई भी खतरा नजर आए वहां उसपर व्यापक विमर्श पारदर्शिता से कर खतरे की संभावना को दूर करने व न्यूनतम करने की ओर अधिकतम ध्यान देना चाहिए। किसी भी खतरे को छिपाने का कुप्रयास नहीं होना चाहिए।
इस संबंध में नियमों व स्वीकृत सावधानियों को पूरी तरह ध्यान में रखना चाहिए तथा संबंधित अधिकारियों व विभागों की जिम्मेदारियां सुनिश्चित की जानी चाहिए। राष्ट्रीय हितों व विशेषकर बच्चों के हितों को सबसे ऊपर रखकर ही आगे बढ़ना चाहिए तथा किसी बाहरी स्वार्थ को नीति-निर्धारण में स्थान नहीं देना चाहिए।
टीकाकरण स्वास्थ्य कार्यक्रम का बहुत महत्त्वपूर्ण हिस्सा है जो अनेक बीमारियों से बचाव करता है। इसे बहुत सुरक्षित ढंग से आगे ले जाना चाहिए। जब तक जरूरी टीकों या वैक्सीन को सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में बनाया जा रहा था, तब तक इस क्षेत्र में मुनाफे की प्रवृत्ति हावी नहीं हुई थी और जो टीके वैज्ञानिक परामर्श के आधार पर सबसे जरूरी व उपयोगी माने जाते थे उनको ही टीकाकरण कार्यक्रम में रखा जाता था।
पर हाल के वर्षों में विश्व स्तर पर वैक्सीन उद्योग में बदलाव आए हैं व इनमें बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का केंद्रीकरण बहुत बढ़ गया है। इन बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की विकासशील देशों में अनेक सहायक कंपनियां हैं। इन कंपनियों की नजर इस पर है कि विकासशील देशों के टीका कार्यक्रमों में उनके अधिक महंगे और मुनाफे वाले वैक्सीनों को किसी तरह शामिल करा लिया जाए क्योंकि यदि अनिवार्य टीकों में उनका महंगा टीका जुड़ गया तो बिना किसी विशेष प्रयास के उनके करोड़ों टीकों की बिक्री प्रतिवर्ष सुनिश्चित है। इसमें भी वे अधिक कम्बीनेशन के ऐसे टीकों को बेचने में अधिक रुचि रखते हैं जिनका पेटेंट अधिक समय तक चल सकता है व एकाधिकार जैसी स्थिति भी मिल सकती है।
इस प्रवृत्ति के जोर पकड़ने के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठनों में गहरी पैठ कर ली ताकि उनके माध्यम से उनके हितों की पैरवी हो सके। साथ में उन्होंने टीकाकरण या वैक्सीन संबंधी नए गठबंधन भी बनाए हैें जो विभिन्न देशों में उनके नए टीकों की पैरवी करते हैं। इसके लिए वे कुछ वित्तीय सहायता देने को भी तैयार रहते हैं ताकि आरंभ में नया टीका अधिक महंगा न लगे। एक अन्य प्रवृत्ति यह देखी गई है कि विकासशील देशों के कुछ अधिकारियों व विशेषज्ञों को भी यह कंपनियां व अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन प्रलोभन देने लगे हैं कि हमारी बात मानो तो तुम्हें अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में अवकाश प्राप्ति के बाद मोटी आय का पद या अनुबंध मिल जाएगा।
इस तरह एक बहुत अजीब स्थिति उत्पन्न हो गई है कि टीकाकरण जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में अब निर्णय इस आधार पर नहीं लिए जा रहे हैं कि किसी देश में सबसे जरूरी व उचित लागत के टीके कौन से हैं अपितु यह महत्त्वपूर्ण निर्णय इससे प्रभावित हो रहा है कि बहुत साधान-संपन्न बड़ी कंपनियां व उनसे जुड़े गठबंधन कौन से टीके बेचना चाहते हैं व उसमें सफल होते हैं।
विकसित देशों में कुछ नए टीके आए हैं पर वे महंगे हैं। अतः पता नहीं कितने टिक पाएंगे। यदि उन्हें विकासशील देशों के टीकाकरण में जगह मिल गई तो उनका उत्पादन कहीं बड़े पैमाने पर हो सकेगा व प्रति टीका लागत कम हो जाएगी। इस आधार पर टीका कंपनी का कारोबार टिक सकेगा।
अतः अनेक कंपनियों का प्रयास यह है कि जो टीके पहले से विकासशील देशों के टीकाकरण में लगे हैं उनमें कोई नया टीका जोड़कर अपना नया कंबीनेशन बना लें और इस नए कंबीनेशन को टीका कार्यक्रम में शामिल करा लें। इस तरह एक ही झटके में नए कंबीनेशन का ऑर्डर मिल जाता है और बहुत मुनाफा प्राप्त होता है।
यह सब टीकाकरण जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में मुनाफे की प्रवृत्ति हावी होने का परिणाम हे। टीकाकरण का क्षेत्र पूरी तरह स्वास्थ्य व बच्चों के हित को आधार बनाकर निर्धारित होना चाहिए व इस पर मुनाफे की प्रवृत्तियों को किसी भी हालत में हावी नहीं होना चाहिए। इसके निर्णय निष्पक्षता से केवल उपलब्ध वैज्ञानिक तथ्यों व अध्ययनों के आधार पर होने चाहिए। इन प्राथमिकताओं को ऊपर रखते हुए समग्र वैक्सीन नीति बनानी चाहिए। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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20 January 2021 08:56 PM
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