18 December 2020 06:23 PM
-फूलदेव पटेल (मुजफ्फरपुर, बिहार)
ऐसे वक्त में जबकि देश में रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं, बड़ी-बड़ी कंपनियां कर्मचारियों की छटनी कर रही हैं, रोजगार के अवसर लगातार सीमित होते जा रहे हैं, ऐसे वक्त में भी देश के ग्रामीण क्षेत्रों में किसी न किसी रूप में रोजगार के अवसर उपलब्ध हैं। वास्तव में देश की एक बड़ी आबादी कृषि तथा कृषि आधारित रोजगार पर निर्भर है। जिसमें पशुपालन और उससे जुड़े अन्य रोजगार भी शामिल है। इन्हीं में डेयरी उद्योग भी जुड़ा है। जिससे युवा किसानों को नए रोजगार भी मिल रहे हैं। प्रत्येक गांव और कस्बों में डेयरी सेंटरों की संख्या बढ़ रही है। यह संभव हुआ है दुग्ध उत्पादन में आत्मनिर्भर बनने से। एक समय था जब श्वेत क्रांति के लिए पूरी दुनिया में भारत को जाना जाता था। ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों द्वारा ज्यादा से ज्यादा गाय, भैंस और बकरी पालने की वजह से दूध का कारोबार फल फूल रहा था। लेकिन बदलते परिदृश्य में शहरी आबादी के साथ-साथ ग्रामीण जनता भी इस व्यवसाय से दूर होती जा रही है। शहर में जहां जानवरों के चारे की दिक्कत है, तो वहीं गांव में समुचित सुविधा और प्रशिक्षण के अभाव में पशुपालकों की संख्या घट रही है।
हालांकि सालों भर रोजगार देने वाले इस काम को बढ़ावा देने के लिए केंद्र से लेकर विभिन्न राज्य सरकारें अनेक योजनाएं संचालित कर रही हैं। बिहार में पशुपालन को अधिक से अधिक रोजगार के रूप में उपलब्ध कराने के लिए समग्र गव्य विकास योजना भी चलाई जा रही है। इसके तहत पशुपालकों को प्रशिक्षण, ऋण और अनुदान भी दिए जाने का प्रावधान है। बिहार सरकार डेयरी उद्योग को बढ़ावा देने के लिए समग्र गव्य विकास योजना के तहत 50 से 75 प्रतिशत तक सरकारी अनुदान देती है। इस योजना के तहत अलग-अलग दुधारू मवेशियों की संख्या के अनुसार अनुदान की व्यवस्था की गई है। इसमें सामान्य जाति के लोगों को 50 प्रतिशत जबकि अनुसूचित जाति के लोगों को 75 प्रतिशत अनुदान का लाभ दिया जाता है।
देश में दूध के नाम पर आम लोगों की सेहत की चिंता किए बिना यूरिया से दूध बनाने का खुलेआम काला धंधा भी चल रहा है। सरकारी हुक्मरानों की उदासीनता व भ्रष्ट रवैये के कारण लाखों लोगों का स्वास्थ्य राम भरोसे है। यह बात जरूर है कि शहरी क्षेत्रों में खटालों के जरिये दूध का उत्पादन हो रहा है, जो रोजगार व सेहत दोनों के लिए ठोस कदम माना जा सकता है। इससे इतर देहाती इलाकों में भी दुधारू पशु रोजगार और आय का एक सशक्त माध्यम है, परंतु उचित प्रशिक्षण व रोगोपचार की जानकारी के अभाव में इन पशुपालकों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है, जो चिंता का सबब है। हालांकि अभी भी गरीब कृषकों के लिए पशुपालन वरदान साबित हो रहा है। छोटे-छोटे पशुपालक दूध, दही, घी व मक्खन बेचकर न केवल आय का अच्छा स्रोत जुटा रहे हैं बल्कि अपने बच्चों को भी अच्छी शिक्षा दिलाकर देश-दुनिया के लिए मिसाल कायम कर रहे हैं।
इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण बिहार के मुजफ्फरपुर जिला स्थित साहेबगंज प्रखण्ड के एक छोटा सा गांव हुस्सेपुर महुआनी है। जहां दर्जनों गरीब परिवार कृषि के साथ-साथ पशुपालन का व्यवसाय अपनाकर आर्थिक रूप से सशक्त हो रहे हैं। इन्हीं में एक बेहद गरीब किसान मुन्नी राय भी हैं। एक समय था जब उनका पारिवारिक जीवन बहुत ही कष्टमय बीतता था। लेकिन आज पशुपालन की बदौलत उन्होंने अपने बेटे को प्रतिष्ठित ‘आइआइटी’ से पढाई पूरी करवाई है। मुन्नी राय स्वयं अशिक्षित हैं लेकिन अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए पूरे लगन से गाय व भैंस पालने में लगे हैं। मुन्नी राय के पास इतनी कम जमीन है कि उससे खेती करके परिवार का भरण-पोषण और शिक्षा का काम मुश्किल हो गया था। लेकिन जब इंसान के पास हिम्मत और साहस हो तो कुछ भी संभव हो सकता है। मुन्नी राय ने खेती के साथ-साथ पशुपालन व्यवसाय भी शुरू किया। गाय और भैंस का दूध को बेचकर उन्हें अतिरिक्त आय प्राप्त होने लगी। जिससे आर्थिक स्थिती में पहले की तुलना में काफी सुधार आने लगा। उनकी देखा-देखी गांव के दर्जनों गरीब किसानों ने पशुपालन को अपनी जीविका का आधार बनाया है। धर्मनाथ सहनी, लाल बिहारी राय, संजय राय, जनक राय, प्रभु राय, मनक राय, फूलदेव राय, राम अशीष राय, रामाधार राय, रधुवर यादव, रवीन्द्र राय आदि ऐसे दर्जनों गरीब किसान हैं, जिनकी आय का मुख्य स्रोत पशुपालन बन चुका है।
हालांकि पशुपालन व्यवसाय में कई कठिनाइयां भी हैं। इस संबंध में एक पशुपालक आशीष राय कहते हैं कि स्थानीय ग्रामीण बैंक से समय पर किसानों को क्रेडिट कार्ड नहीं मिलता है। जिससे गांव के साहूकार से 5 प्रतिशत मासिक ब्याज पर पैसे लेकर पशुओं का दाना-साना तथा दवा करनी पड़ती है। केसीसी के नाम पर आवंटित राशि का 10 प्रतिशत रिश्वत सरकारी बाबुओं को देनी पड़ती है। ऐसे में महाजन (साहूकार) से ब्याज पर पैसे लेकर काम चलाना अच्छा है। दूसरी ओर हुस्सेपुर परनी छपड़ा गांव के सहिन्द्र बारी कहते हैं कि पशुओं के टीकाकरण और बीमारियों का निदान सरकारी स्तर पर नहीं मिलने के कारण अधिकांश पशुओं की असमय मृत्यु हो जाती है। पशुओं के रोग से अनभिज्ञ पशुपालक भारी-भरकम पूंजी गंवा देते हैं इसलिए लोग पशुपालन से मुंह मोड़ने लगते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि सरकारी स्तर पर चलाई जा रही योजना, रोगोपचार और प्रशिक्षण आदि क्या केवल कागज पर खानापूर्ति के लिए है?
हालांकि पारु ब्लॉक के पशु चिकित्सक डा. अरुण कुमार का कहना है कि सरकारी स्तर से मवेशियों को सुरक्षित और स्वस्थ्य रखने के लिए टीकाकरण किया जाता है। खासकर मवेशी को खसरा, डकहां, जैसी बीमारियों से ज्यादा परेशानी होती है। इसके लिए समय-समय पर सरकार पशु गणना करवा रही है। साथ ही पशुओं के टैग जिसे पशु आधार कार्ड भी कहा जाता है, पशुपालकों को उपलब्ध कराई जाती है, साथ ही पशुओं के लिए प्रखण्ड स्तर पर दवा भी उपल्बध है। लेकिन पशुपालक इन्दु देवी, धर्मशीला देवी, राकेश यादव ,संजय यादव आदि कहते हैं कि मवेशी के लिए जो भी दवाएं आती हैं, वह सभी पशुपालकों को नहीं मिलती है।
वास्तव में सरकार द्वारा चलाई जा रही अनेकों योजनाएं ऐसी हैं, जिससे गरीबों और किसानों के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है, लेकिन विडंबना यह है कि इनमें से अधिकतर योजनाएं जमीनी स्तर की तुलना में कागज पर अधिक काम करते हैं। यही कारण है कि मुन्नी राय जैसे लाखों पशुपालक सरकारी लाभ नहीं ले पाते हैं और उन्हें पशुधन को बचाने के लिए साहूकार से कर्ज लेना पड़ता है। यदि रोजगार के लिए पशुधन को सशक्त माध्यम बनाना है तो पहले पशुपालकों को उचित प्रशिक्षण समेत समुचित जानकारियां उपलब्ध करवानी होगी। उन्हें टीकाकरण, रोगोपचार, संरक्षण और संवर्धन के लिए प्रशिक्षित करना ही होना होगा। (चरखा फीचर)
RELATED ARTICLES
20 January 2021 08:56 PM
भारत अपडेट डॉट कॉम एक हिंदी स्वतंत्र पोर्टल है, जिसे शुरू करने के पीछे हमारा यही मक़सद है कि हम प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता इस डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी परोस सकें। हम कोई बड़े मीडिया घराने नहीं हैं बल्कि हम तो सीमित संसाधनों के साथ पत्रकारिता करने वाले हैं। कौन नहीं जानता कि सत्य और मौलिकता संसाधनों की मोहताज नहीं होती। हमारी भी यही ताक़त है। हमारे पास ग्राउंड रिपोर्ट्स हैं, हमारे पास सत्य है, हमारे पास वो पत्रकारिता है, जो इसे ओरों से विशिष्ट बनाने का माद्दा रखती है।
'भारत अपडेट' शुरू करने के पीछे एक टीस भी है। वो यह कि मैनस्ट्रीम मीडिया वो नहीं दिखाती, जो उन्हें दिखाना चाहिए। चीखना-चिल्लाना भला कौनसी पत्रकारिता का नाम है ? तेज़ बोलकर समस्या का निवारण कैसे हो सकता है भला? यह तो खुद अपने आप में एक समस्या ही है। टीवी से मुद्दे ग़ायब होते जा रहे हैं, हां टीआरपी जरूर हासिल की जा रही है। दर्शक इनमें उलझ कर रह जाता है। इसे पत्रकारिता तो नहीं कहा जा सकता। हम तो कतई इसे पत्रकारिता नहीं कहेंगे।
हमारे पास कुछ मुट्ठी भर लोग हैं, या यूं कहें कि ना के बराबर ही हैं। लेकिन जो हैं, वो अपने काम को बेहद पवित्र और महत्वपूर्ण मानने वालों में से हैं। खर्चे भी सामर्थ्य से कुछ ज्यादा हैं और इसलिए समय भी बहुत अधिक नहीं है। ऊपर से अजीयतों से भरी राहें हमारे मुंह-नाक चिढ़ाने को सामने खड़ी दिखाई दे रही हैं।
हमारे साथ कोई है तो वो हैं- आप। हमारी इस मुहिम में आपकी हौसलाअफजाई की जरूरत पड़ेगी। उम्मीद है हमारी गलतियों से आप हमें गिरने नहीं देंगे। बदले में हम आपको वो देंगे, जो आपको आज के दौर में कोई नहीं देगा और वो है- सच्ची पत्रकारिता।
आपका
-बाबूलाल नागा
एडिटर, भारत अपडेट
bharatupdate20@gmail.com
+919829165513
© Copyright 2019-2025, All Rights Reserved by Bharat Update| Designed by amoadvisor.com