22 April 2020 03:44 PM
भारत अपडेट न्यूज, टोंक। बाजारों और फुटपाथों में बंदर और भालुओं का खेल तमाशा हमारी कई पीढ़ियों ने देखा होगा। जानवरों को सिखाने पढ़ाने का काम ये मदारी करते थे। उन्हें कलंदर भी कहते हैं।
जानवरों के साथ कई बार ज्यादतियां भी होती थीं। उन्हें बुरी हालत में रखा जाता था। इसलिए वन्यजीव कानून 1972 बना। सर्कर्सों और मदारी का काम करने वालों का रोजगार छिन गया। जानवरों के खेल दिखाने चाले ये कलंदर दाने-दाने को मोहताज हो गए। टोंक में किसी समय 37 भालू थे। इनके दम पर डेढ़ सौ परिवारों के पेट पलते थे। 1972 का कानून बनते ही इन परिवारों के सामने जीने मरने का संकट आन पड़ा। कुछ मदारियों नूर मोहम्मद, अशरफ और भैयल भाई ने सोचा कि हम कलंदरों को ही पढ़ाएंगे। उनकी कोशिश कामयाब हुई। वन्यजीव एसओएस संस्था ने सहारा दिया। कमाई के नए तरीके ढूंढे।
आज उनके पास पक्के घर हैं। समाज के 240 बच्चे स्कूल जा रहे हैं। कुछ बच्चे बीए पास कर चुके हैं। औरतें खिलौने बना रही हैं। ये खिलौने दुनियाभर में खरीदे जा रहे हैं।
समाज की एक पढ़ी लिखी बेटी रुखसाना और उसकी सहेलियों ने बाल विवाह के खिलाफ बिगुल भी बजा दिया है। मदारी समाज की मांग है कि उन्हें भी घुमंतू जातियों में शामिल किया जाए। सरकार से मिलने वाली विभिन्न योजनाओं जैसे आवास और रोजगार आदि के काबिल उन्हें भी माना जाए।
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-बाबूलाल नागा
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