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Tuesday, April 23, 2024
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यदि आज महात्मा गांधी जीवित होते

-वेदव्यास
महात्मा गांधी भारत में लोकतंत्र के ऐसे देवता हैं कि संसद से लेकर सड़क तक, राजपथ से लेकर जनपथ तक, शौचालय से लेकर देवालय तक और व्यक्ति से लेकर विचार बनने तक, जीवन की हर एक प्रयोगशाला में अनिवार्य विषय के रूप में याद किए जाते हैं। भारत का स्वतंत्रता संग्राम हो या फिर सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तन का युद्ध विराम हो, हमारी समस्त ज्ञान चेतना में वह पंचतत्व की तरह प्रकृति और मनुष्य के बीच एक सेतु का काम करते हैं। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि दुनिया में शायद ही ऐसा कोई दूसरा महानायक हो जिसे संकटमोचक की तरह इस्तेमाल किया जाता हो।
पिछले कुछ वर्षों से महात्मा गांधी भारत में स्वच्छता मिशन के राजदूत की भूमिका निभा रहे हैं तो इससे पहले भी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) से जुड़े हुए रहे हैं। सरकारी बैंक के नोट (मुद्रा) से लेकर शासन-प्रशासन के हर कार्यस्थल पर इनका चित्र मौजूद है और शांति तथा युद्ध के हर मौसम में इन्हें याद किए बिना डिजिटल इंडिया का प्रत्येक कार्य अधूरा माना जाता है। विकास और परिवर्तन की, राष्ट्रवाद और लोकवाद की, भ्रम और यथार्थ की प्रत्येक दशा, दिशा और संभावना में गांधीजी के नाम का ताबीज बांधना देशवासियों की नित्य, क्रिया बन गई है। बहरहाल, महात्मा गांधी आज जीवित होते तो उन्हें पता चलता कि आजाद भारत के पुनर्निर्माण में वह एक भूमिपूजा से लेकर श्रीगणेश की भूमिका तक कैसे-कैसे व्याप्त है?
महात्मा गांधी के नाम की इस ताकत को देखने-समझने से पता चलता है कि गांधीजी का अधिकतम उपयोग इस कालखंड में और भूमंलीकरण के पिछले 30 वर्षों के आर्थिक सुधारों में धीरे-धीरे एक ऐसा जुमला और टोटका बना दिया गया है ताकि उसका असल प्रभाव ही मजाक का विषय बन जाए। भारत में एक तरफ महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव अंबेडकर और जवाहरलाल नेहरू की तो दूसरी तरफ दीनदयाल उपाध्याय, स्वामी विवेकानंद, सरदार पटेल, शिवाजी, महाराणा प्रताप और सुभाषचंद्र बोस जैसी प्रेरणाओं की ऐसी मुक्तिवाहिनी सैनिक टुकड़ियां तैनात कर दी गई हैं कि राजनीति के हर दंगल में भारत की अंतरचेतना का आधार ही बदलता जा रहा है। भारत के इन निर्माताओं की जनता के मन में और खासकर युवा आबादी के दिल और दिमाग में शेष रहा-सहा प्रभाव, आदर्श और अनुसरण ही समाप्त होता जा रहा है। 1947 के बाद हमने भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर और अशफाक उल्ला जैसे सभी क्रांतिकारियों की परंपरा और योगदान को धीरे-धीरे ध्वस्त किया है तो 2014 के बाद हम-एक देश-एक बाजार, एक राष्ट्र-एक विचार, एक गांव-एक श्मशान और ऐसे ही अनेक प्रकार के नारों और दुष्प्रचारों के साथ स्वतंत्रता संग्राम के संपूर्ण इतिहास-भूगोल और आधार को ही बदलने का ही प्रयास कर रहे हैं ताकि महात्मा गांधी की सत्य और अहिंसा, अंबेडकर का सामाजिक आर्थिक न्याय, जवाहरलाल नेहरू का वैज्ञानिक समाजवाद और कबीर, रैदास, नानक और अरविंद जैसों की विविधता में एकता की विरासत ही समाप्त हो जाए।
भारत की परिभाषा को बदलने का यह दुष्परिणाम हो रहा है कि आज हम संवाद और सहिष्णुता की जगह युद्ध और मुठभेड़ का अभ्यास कर रहे हैं। जातिप्रथा के नाम पर दलित-आदिवासियों को न्याय और सम्मान से वंचित कर रहे हैं तो भारत माता, गौ माता और गंगा माता के हरि कीर्तिन में महिलाओं को सांस्कृतिक उत्पीड़न की दीवारों में कैद कर रहे हैं। यानी की जिसका जितना महिमामंडन हो रहा है वहां उसी का उतना ही खंडन और अवमूल्यन भी हो रहा है। हम महात्मा गांधी की मूल अवधारणा को ही नकारते हुए आज गांव, गरीब और स्वराज को ही नष्ट कर रहे हैं। यही कारण है कि आज भारत में लोकतंत्र की चाल, चेहरा और चरित्र बदला जा रहा है तथा आस्थाओं की राजनीति के तूफान में जाति-धर्म का उन्माद जगाया जा रहा है। महात्मा गांधी, अंबेडकर और जवाहरलाल नेहरू आज इसलिए भारत निर्माण की नई व्याख्याओं में हाशिए पर धकेले जा रहे हैं ताकि लोकतंत्र को एकाधिकारवादी, एकात्मवादी, राष्ट्रवादी और केवल और केवल संकीर्णवादी वर्ग और वर्ण चेतना में बदला जा सके।
महात्मा गांधी आज भारत के राजतंत्र में कहीं भी नहीं हैं लेकिन प्रचार और दिखावे में सभी जगह है। आज गांधीजी का गुजरात ही इस बात का उदाहरण बना हुआ है कि दलितों पर गौरक्षकों के हमले हो रहे हैं, उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों की घेराबंदी हो रही है तो पूरा भारत ही जातीय राजनीति की धार्मिक महाभारत में कौरव-पांडवों की तरह अच्छे दिनों की लड़ाई लड़ रहा है। ऐसे में सोचने और समझने की बात यही है कि भारत का एक मोर्चा सीमा के पार है तो दूसरा मोर्चा घर के भीतर खुला हुआ है। महात्मा गांधी ने तो सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद को भारत से उखाड़ फेंका था लेकिन हम पिछले 75 साल में भी अपने पड़ोसी देशों से भाईचारा नहीं बना पा रहे हैं और दलित-अल्पसंख्यकों को न्याय और सम्मान नहीं दे पा रहे हैं। महात्मा गांधी आज भारत की जाति-धर्म की राजनीति में सबसे पहले और अंतिम शहीद हैं क्योंकि हमने गांधीजी  को शौचालय से देवालय तक स्थापित कर दिया है और साबरमती से राजघाट तक पहुंचा दिया है। ( लेखक साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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