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Tuesday, October 21, 2025
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मानहानि मामलों को अपराधिक श्रेणी से हटाने पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के होंगे दूरगामी परिणाम!

-डॉक्टर सैयद खालिद कैस एडवोकेट

विगत कई वर्षों से सरकारों द्वारा पत्रकारों को प्रताड़ित करना एक गंभीर मुद्दा है, खासकर जब वे आलोचनात्मक टिप्पणियां करते हैं। हाल के वर्षों में, कई पत्रकारों ने सरकार की नीतियों और कार्यों की आलोचना करने के लिए प्रताड़ना का सामना किया है। पत्रकारों पर अक्सर सरकार की आलोचना करने के लिए मानहानि, राजद्रोह या गैरकानूनी गतिविधि निवारण अधिनियम के तहत आपराधिक मामले दर्ज किए जाते हैं।

पत्रकारों के खिलाफ लगातार बढ़ती सरकारी उत्पीड़न की घटनाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में कहा था कि पत्रकारों के विरुद्ध सिर्फ इसलिए आपराधिक मामला नहीं दर्ज किया जाना चाहिए क्योंकि उनके लेखन को सरकार की आलोचना के रूप में देखा जा सकता है। यह टिप्पणी पत्रकारों की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है।

आजादी के 78 साल गुजर जाने के बावजूद लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाली पत्रकारिता के असुरक्षित होने के पीछे सत्ता, सरकार और माफिया के अत्यधिक हस्तक्षेप ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पत्रकारों को अपने काम के लिए स्वतंत्रता और सुरक्षा की अत्याधिक आवश्यकता होती है। उन्हें अपने स्रोतों की रक्षा करने और बिना किसी डर के रिपोर्ट करने में सक्षम होना चाहिए। लेकिन वास्तव में पत्रकार और पत्रकारिता दोनों में असुरक्षा की भावना अपना स्थान बना चुकी है।

पत्रकारों के विरुद्ध सत्ता, संगठन और माफिया का सबसे बड़ा हमला आपराधिक मानहानि के मामले दर्ज कराना है। भारत दुनिया के उन चंद देशों में शामिल है जहां मानहानि को अपराध की श्रेणी में रखा गया है। सुप्रीम कोर्ट ने मई 2016 में आपराधिक मानहानि के कानून को संवैधानिक रूप से वैध माना था। लेकिन अब स्वयं सुप्रीम कोर्ट को इस बात का अहसास हो गया हैं कि मानहानि के मामलों को आपराधिक श्रेणी से हटाए जाने का समय आ गया है।

गौरतलब हो कि सुप्रीम कोर्ट ने गत सोमवार को एक मानहानि मामले की सुनवाई के दौरान अहम मानहानि मामलों पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। उच्चतम न्यायालय ने “द वायर मीडिया आउटलेट” से संबंधित मामले पर विचार करते हुए कहा है कि मानहानि के मामलों को आपराधिक श्रेणी से हटाए जाने का समय आ गया है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 2016 के अपने एक फैसले में आपराधिक मानहानि कानूनों की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा था। इस दौरान कोर्ट ने यह भी कहा था कि प्रतिष्ठा का अधिकार “संविधान के अनुच्छेद 21 “के तहत जीवन और सम्मान के मौलिक अधिकार के अंतर्गत आता है। परन्तु वर्तमान संदर्भ में अब कोर्ट ने इससे अलग टिप्पणी की है। उक्त मानहानि मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एमएम सुंदरेश ने कहा कि “मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि इस सब को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया जाए।”

सुप्रीम कोर्ट ने “द वायर मीडिया आउटलेट” का पक्ष रख रहे सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने कोर्ट की इस टिप्पणी से सहमति जताते हुए कहा कि कानून में सुधार की जरूरत है।

भारतीय न्याय संहिता की धारा 356 के तहत भारत में मानहानि एक आपराधिक मामला है। भारत दुनिया के उन चंद देशों में शामिल है जहां मानहानि को आपराधिक मामलों का दर्जा दिया गया है। इससे पहले 2016 में “सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ “मामले में, शीर्ष अदालत ने आपराधिक मानहानि की संवैधानिकता को बरकरार रखते हुए कहा था कि यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत “भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता “पर एक उचित प्रतिबंध के रूप में कार्य करता है और जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का एक मौलिक हिस्सा है।

पत्रकारों पर मानहानि के मामले अक्सर उनकी रिपोर्टिंग और लेखन के कारण दर्ज किए जाते हैं। मानहानि के मामलों में पत्रकारों को अपने काम के लिए कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। मानहानि के मामले अक्सर प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए उपयोग किए जाते हैं। पत्रकारों पर आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने किसी व्यक्ति या संगठन की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाया है। मानहानि के मामले पत्रकारों पर दबाव डाला जाता हैं और उन्हें अपनी रिपोर्टिंग में आत्म-निरीक्षण करने के लिए मजबूर  किया जाता है। मानहानि के मामलों में पत्रकारों को कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा मानहानि मामलों में कानून में सुधार की जरूरत पर जो टिप्पणी दी है उसके दूरगामी परिणाम आ सकते हैं। यदि मानहानि मामलों को अपराधिक श्रेणी से हटाने पर सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी पर आगे जाकर यदि कानून में परिवर्तन होता है तो आलोचनात्मक टिप्पणी के नाम पर देश भर में पत्रकारों पर हुए राजनैतिक हस्तक्षेप पर अंकुश लगेगा और पत्रकार बिरादरी  भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (a) के तहत संरक्षित विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की शक्ति का बखूबी उपयोग कर सकती है। (लेखक समीक्षक, आलोचक व पत्रकार हैं)

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