अल्प-कालीन आर्थिक लाभ को बढ़ाने की जल्दबाजी में कई बार ऐसे निर्णय ले लिए जाते हैं जो पर्यावरण के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध होते हैं व यह पर्यावरण विनाश आगे चलकर टिकाऊ आर्थिक प्रगति में भी एक बहुत बड़ी बाधा बन जाता है। कुछ ऐसी ही स्थिति विश्व के अनेक क्षेत्रों में कृषि विकास के संदर्भ में देखी जा रही है।
हमारे देश में इसे पंजाब के उदाहरण से समझा जा सकता है क्योंकि जहां तक उत्पादन व उत्पादकता तेजी से आगे बढ़ाने का सवाल है तो सबसे पहले पंजाब ने ही इसमें तेज वृद्धि दिखाई थी। देश में पंजाब की व्यापक पहचान देश के सबसे समृद्ध राज्यों के रूप में है, पर इस ओर बहुत कम ध्यान गया है कि कई महत्त्वपूर्ण संदर्भों में पंजाब का पर्यावरण बहुत तेजी से उजड़ रहा है। विशेषकर मिट्टी, पानी व जैव-विविधता की रक्षा जैसे बुनियादी सरोकारों की दृष्टि से देखें तो आज पंजाब के पर्यावरण को संकटग्रस्त ही माना जाएगा।
जहां एक ओर पंजाब में हरित क्रांति के दौर में रासायनिक खाद का अधिक व असंतुलित उपयोग हुआ, वहां दूसरी ओर गोबर व कम्पोस्ट जैसे आर्गेनिक तत्त्व बढ़ाने वाली खाद का कम उपयोग हुआ। इस कारण पंजाब के खेतों की मिट्टी में मुख्य व सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी हो गई। पंजाब विज्ञान व तकनीकी परिषद द्वारा तैयार की गई पर्यावरण रिपोर्ट ने पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के अध्ययनों के आधार पर बताया है कि मिट्टी के 180000 नमूनों की जांच में 78 प्रतिशत में आर्गेनिक कार्बन की कमी पाई गई। एक अन्य अध्ययन से पता चला कि 49 प्रतिशत मिट्टी के नमूनों में जिंक की कमी है।
फसल अवशेषों को खेतों में जलाने से भी मिट्टी की बहुत क्षति होती है। साथ में जो वायु प्रदूषण होता है वह भी एक गंभीर समस्या है।
रासायनिक खाद, कीटनाशक दवाओं, खरपतवारनाशक दवाओं आदि के अधिक उपयोग का बहुत प्रतिकूल असर मिट्टी की गुणवत्ता, उसमें मौजूद केंचुओं व सूक्ष्म जीवाणुओं व उसके उपजाऊपन पर पड़ता है। अधिक व भारी कृषि मशीनों का प्रतिकूल असर भी मिट्टी के उपजाऊपन व स्थिरता पर पड़ता है। नाइट्रेट व फास्फेट के ऊपरी जल-स्रोतों व भूजल स्रोतों में पहुंचने से जल-प्रदूषण भी बढ़ रहा है।
पंजाब में फसल-चक्र व फसलों की किस्मों में ऐसे बदलाव जल्दबाजी से किए गए जिससे यहां कृषि के लिए पानी का दोहन बहुत बढ़ गया। औद्योगिक उपयोग के लिए भी जल-दोहन बढ़ गया। इस कारण पांच नदियों के विशाल जल भंडार के लिए विख्यात पंजाब भी जल संकट की ओर बढ़ रहा है।
भू-जल व नदियों दोनों में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है व विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार इस बढ़ते जल-प्रदूषण के साथ त्वचा, पेट, आंखों की समस्याओं के साथ कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां भी जुड़ी हैं। अमृतसर का महल गांव इस कारण चर्चा में था, जहां जल प्रदूषण को जन्म के समय की विकृतियों की वजह भी माना जा रहा है। पास में स्थित बेहद प्रदूषित तुंगधब नाले के पास उगाई जा रही 11 सब्जियों की जांच की गई तो उनमें स्वीकार्य मानदंडों से कहीं अधिक हैवी मेटल पाए गए। ऐसी ही स्थिति लुधियाना जिले के बुड्ड नाले के पास उगाई गई सब्जियों में भी देखी गई। यहां के पास के गांवों में हेपीटाइटस, टायफाइड, दस्त, त्वचा रोग व कैंसर की बीमारियां अधिक होती है। घग्गर नदी के प्रदूषण से अधिक प्रभावित पटियाला जिले के गांवों जैसे समना व घनौर में कैंसर के मरीज बहुत अधिक पाए गए।
भू-जल में यूरेनियम के समाचार मिलने पर विभिन्न क्षेत्रों के ट्यूबवेल के पानी के नमूनों की जांच की गई तो अनेक में यूरेनियम की उपस्थिति का टेस्ट पोजिटिव रहा। बठिंडा में यह स्थिति अधिक चिंताजनक पाई गई।
पंजाब में किए गए विस्तृत सर्वेक्षण में राज्य में कैंसर की उपस्थिति राष्ट्रीय औसत से अधिक पाई गई हैं। यदि केवल राज्य का औसतन देखें व विशेष तौर पर कैंसर के लिए चर्चित कुछ क्षेत्रों का ही अध्ययन करें तो यहां कैंसर की दर आश्चर्यजनक हद तक बढ़ रही है। बठिंडा व मालवा क्षेत्र से बीकानेर जाने वाली एक ट्रेन को लोग कैंसर एक्सप्रैस कहते हैं क्योंकि इसमें बीकानेर के एक अस्पताल में इलाज के लिए जाने वाले कैंसर के मरीजों की संख्या बहुत अधिक होती है।
चण्डीगढ़ स्थित पी.जी.आई, बी.ए.आर.सी. व अन्य संस्थानों के अध्ययनों से पता चला है कि मालवा के अनेक क्षेत्रों में जल कीटनाशक, हैवी मैटल, फ्लोराइड से अधिक प्रभावित हैं व यह कैंसर तथा अन्य बीमारियों का एक बड़ा कारण हो सकता है। इसके अतिरिक्त जन्म के समय की विकृतियां भी इसके कारण उत्पन्न हो सकती हैं।
पंजाब के खेतों मेंपरंपरागत बीजों द्वारा उपलब्ध करवाई गई जैव विविधता बहुत तेजी से लुप्त हुई है।
गांवों के अधिकतर तालाब व पोखर लुप्त हो चुके हैं या उनपर अतिक्रमण हो चुका है। उनमें फैंकी गई गंदगी से प्रदूषण और बढ़ रहा है। नदी हो या तालाब, हर जगह जल-जीव संकट में है। गोरैया हो या खेतों में परागीकरण में सहायता करने वाले मित्र पक्षी व कीट-पतंगे, जहरीले रसायनों के अधिक छिड़काव व अन्य कारणों से इन सभी की संख्या कम होती जा रही है। स्थानीय प्रजातियों के पेड़ों की हरियाली भी कम हो रही है व उनमें शरण लेने वाले जीव-जंतु भी कम हो रहे हैं। किसानों का महत्त्वपूर्ण मित्र केंचुआ माना गया है, पर रासायनिक खाद व कीटनाशकों के हमले ने असंख्य केंचुओं को पंजाब की मिट्टी में समाप्त कर दिया है।
अब समय आ गया है कि पर्यावरण की रक्षा के कार्य को सभी मोर्चों पर अधिक निष्ठा और समझदारी से संभाला जाए। पर्यावरण की क्षति पर चिंता प्रकट करना पर्याप्त नहीं है। जरूरत तो इस बात की है कि यह क्षति किस तरह की अनुचित व विकृत नीतियों के कारण हो रही है, इसकी समझ भी बनाई जाए ताकि नीतिगत सुधार कर पर्यावरण की रक्षा की राह तैयार की जाए।
पंजाब के इन अनुभवों को ध्यान में रखते हुए कृषि-विकास के साथ पर्यावरण की रक्षा को ध्यान में रखना बहुत जरूरी है। कृषि विकास की उचित राह तय करते समय पर्यावरण की रक्षा को अधिक महत्त्व देना चाहिए।(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)