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Monday, December 9, 2024
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नफरत की भाषा को उचित ठहराता है भागवत का बयान

 

-वर्षा भम्भाणी मिर्जा

अगले साल देश में आम चुनाव हैं। नेता और उनके दल अभी से मतदाताओं को प्रभावित करने में लग गए हैं। कोई बांटकर अपना वोटबैंक बढ़ाना चाहता है, तो कोई सबको साथ लेकर चलने की दिशा में देश जोड़ने की यात्रा पर निकल जाता है। यह मतदाता को तय करना है कि कौन कितना ईमानदार है और किसके इरादे उसे नेक नजर आते हैं। बयानों की भूख में जीने वाले मीडिया को हिंदू-मुसलमान का मुद्दा खूब भाता है। यही उसकी पसंदीदा डिश है और वह उसे खाता ही चला जाता है। फिर इतना खाता है कि अपच का शिकार भी हो जाता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत के हालिया आए बयान के साथ भी यही हो रहा है। बल्कि वह तो एक साक्षात्कार है जिसे उन्होंने अपने संगठन के ही मुखपत्र पाञ्चजन्य और आर्गेनाइजर (क्रमशः हिंदी और अंग्रेजी) को दिया है। एक लंबा साक्षात्कार, जिसमें उन्होंने कई मुद्दों पर बातें की हैं। संघ से महिलाओं को जोड़ने के मसले पर भी लेकिन सबसे अलग जिस पर बात की है वह है समलैंगिक समुदाय जिसे दुनिया एलजीबीटीक्यू के नाम से संबोधित करती है। यह जवाब बहुत महत्वपूर्ण है। अब तक के नजरिये से अलग और पौराणिक संदर्भों के साथ। कुछ ऐसा ही जैसे कठोर विचार के बीच कोई नर्म खयाल। वैसे नर्म खयालों की अपेक्षा किन्हीं और मसलों को भी है।

एलजीबीटीक्यू के मायने लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर और क्यू यानी क्वीर का ताल्लुक अजीब, अनूठे, विचित्र रिश्तों से हैं। वैज्ञानिक समुदाय लिंग यानी जेंडर को लैंगिक व्यवहार से अलग मानता है।

बहरहाल, देश के सर्वोच्च न्यायालय ने जब सितंबर 2018 में अंग्रेजों के जमाने की धारा 377 को खत्म किया था तब राजनैतिक दलों ने भी मुखर होकर स्वागत नहीं किया था। यह 1860 में लागू हुई उपधारा थी। हटाने का फैसला पांच जजों की खंडपीठ का था। धारा के खात्मे और एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकारों की बहाली के बारे में जस्टिस इंदू मल्होत्रा की टिप्पणी थी कि इतिहास को इनसे और इनके परिवारों से माफी मांगनी चाहिए क्योंकि जो कलंक और निष्कासन इन्होंने सदियों से भुगता है उसकी कोई भरपाई नहीं है।

कार्टूनिस्ट उन्नी ने तब एक प्रभावी कानून कार्टून बनाया था जिसमें एलजीबीटीक्यू बिरादरी का सदस्य सुप्रीम कोर्ट की ओर देखकर कह रहा है कि यह है तो बहुत बुलंद ईमारत लेकिन आज मुझे घर जैसी लग रही है। ऐसे ही कुछ संकेत मोहन भागवत की ओर से अब मिले हैं क्योंकि इस धारा के हटने पर संघ के अधिकारी अरुण कुमार ने कहा था- समलैंगिक संबंध और विवाह प्रकृति से मेल नहीं खाते और न ही ये प्राकृतिक संबंध होते हैं। हम ऐसे संबंधों का समर्थन नहीं करते। परंपरागत रूप से भी भारत का समाज ऐसे संबंधों को मान्यता नहीं देता।‘ अब मोहन भागवत का नया बयान न केवल इससे ठीक उलट है बल्कि एक पौराणिक कथा का भी उल्लेख करता है।

हम चाहते हैं कि एलजीबीटीक्यू का अपना स्थान हो और उन्हें यह महसूस हो कि वे भी समाज का हिस्सा हैं। उन्हें भी जीने का हक है इसलिए ज्यादा हो हल्ला किए बिना उन्हें सामाजिक स्वीकृति प्रदान की जानी चाहिए। हमें उनके विचारों को बढ़ावा देना होगा।‘ यही नहीं, मोहन भागवत ने इंटरव्यू में महाभारत के चरित्रों के हवाले से एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकारों के प्रति समर्थन जताते हुए कहा कि हम भारत की प्राचीन परम्परा से उदाहरण लेते हैं और समलैंगिक संबंधों का जिक्र महाभारत जैसे ग्रंथों में भी आया है। महाबलशाली राजा जरासंध का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उसके दो शक्तिशाली सेनापति हंस और डिम्भक के बीच समलैंगिक संबंध थे। जब इन ताकतवर सेनापतियों को हराना मुश्किल हो गया, तो कृष्ण ने डिम्भक के मरने की अफवाह उड़ाई। यह सुनकर उसके परम मित्र हंस ने नदी में डूबकर आत्महत्या कर ली। फिर हंस की मौत का समाचार जब डिम्भक के पास पहुंचा, तो अपने मित्र के वियोग में उसने भी नदी में कूदकर जान दे दी। वैसे यह संदर्भ अपने आप में यह सवाल भी खड़ा करता है कि क्या स्वयं कृष्ण इन संबंधों को ठीक नहीं मानते थे या उन्होंने केवल जरासंध की कमर तोड़ने के लिए यह रणनीति अपनाई। यह भी कहानी में है कि जरासंध को युद्ध में हराना पांडवों के लिए मुश्किल था इसलिए कृष्ण की सहायता से उसे छल से ही मारा जा सका। भीम के साथ उसका मल्ल्युद्ध 28 दिनों तक चला। हर बार उसका शरीर दो टुकड़े करने के बावजूद जुड़ जाता था। जब कृष्ण ने भीम को घास के तिनके के जरिये संकेत दिया कि इसके दो टुकड़ेकर अलग-अलग दिशाओं में फेंको! उसके बाद ही जरासंध का अंत हुआ।

होमोसेक्सुएलिटी को लेकर देश के मेट्रो शहरों में 2008 से ही बड़े आंदोलन देखे गए। सड़कों पर परेड का आयोजन भी हुआ जिसमें एलजीबीटीक्यू समुदाय के हजारों लोग रंग-बिरंगे नकाबों के साथ इसमें शामिल हुए क्योंकि तब देश में यह अपराध था और वे जेल में डाल दिए जाते थे। आरएसएस की विचारधारा में मार्च 2016 से बदलाव रेखांकित होता है। संघ विचारक दत्तात्रेय होसबोले ने इस सिलसिले में पहला बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि समलैंगिकता कोई अपराध नहीं है। एक ही लिंग में सेक्स से अगर अन्य लोगों का जीवन प्रभावित नहीं होता है तो समलैंगिकता के लिए सजा नहीं दी जानी चाहिए। होसबोले के शब्द थे- सेक्सुअल प्रेफरेन्स बेहद निजी और व्यक्तिगत है।‘इसके दो साल बाद धारा 377 जरूर खत्म हुई लेकिन ऐसे जोड़ो को शादी की अनुमति अभी नहीं मिली है। हो सकता है कि आगे ऐसा भी हो क्योंकि तब तमाम याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट को लौटा दिया था और सरकार को जवाब देने के लिए कहा था। भले ही अपराध की यह धारा हटा दी गई हो लेकिन समाज अब भी इनके साथ अपराधियों जैसा व्यवहार ही करता है। ट्रांसजेंडर बच्चों के जन्म को छिपाया जाता है। यहां तक कि इनकी शादी भी जबर्दस्ती करा दी जाती है। यह उसके लिए बहुत ही पीड़ादायक अनुभव होता है। बताया जाता है कि भारत में इस समुदाय की सदस्य संख्या करीब 22 लाख है। उम्मीद की जानी चाहिए कि संघ जैसे सामाजिक संगठन परिवारों को भी इसके लिए जागरूक करेंगे। यहां इस जागरूकता की सबसे ज्यादा जरूरत है।

इस मुद्दे पर यह मानवीय संवेदना मायने रखती है लेकिन दूसरे छोर पर यह मानवता का भाव अब गायब है। लगातार एक हजार साल तक युद्ध में रहने की बात है। मानव-मानव के बीच दूरी की बात है। दुनिया भले ही मानवता को अपनी नस्ल और और प्रेम को अपना धर्म मानने के लिए उठ खड़ी हुई हो लेकिन मोहन भागवत कहते हैं कि अब बाहर से नहीं अंदर से लड़ाई है। हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति, हिंदू समाज की सुरक्षा का प्रश्न है। उसकी लड़ाई चल रही है। अब विदेशी लोग नहीं हैं पर विदेशी प्रभाव है, विदेश से होने वाले षड्यंत्र हैं। इस लड़ाई में लोगों में कट्टरता आएगी। नहीं होना चाहिए फिर भी उग्र वक्तव्य आएंगे। साफ है कि यह बयान उस नफरत भरी भाषा को उचित ठहराता है जो पिछले दिनों में भाजपा के सांसदों, मंत्रियों और पदाधिकारियों द्वारा बोली गई है। संकेत हैं कि ऐसे बयान अभी और आएंगे। सवाल यह भी है कि कौन से विदेशी साजिश कर रहे हैं, कौन से गैर हिंदू नागरिक संगठनों से बात कर वे इस नतीजे पर पहुंचे हैं? क्या कोई ऐसा मंच बनाया गया है जहां गैर हिंदू नागरिक हनुमान की तरह अपना सीना चीर के दिखाए कि वह देशभक्त हैं? उस पर संदेह क्यों ? क्या आरएसएस के मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने ऐसे संकेत दिए हैं ? लिंचिंग करने वाले हिंदू विरोधी, सब भारतीयों का डीएनए एक और ज्ञानव्यापी विवाद के समय रोज एक झगड़ा क्यों बढ़ाना? हर मंदिर में शिवलिंग क्या देखना जैसे सद्भावी बयानों के बीच इस इंटरव्यू में कही गई बातों की क्या वजह है ? 2018 का एक और लोकप्रिय बयान भी मोहन भागवत का था कि मुसलमानों के बिना हिंदुत्व अधूरा है। जानना जरूरी है कि बयानों में अब सद्भाव की कमी क्योंकर आई ? क्या आने वाले आम चुनावों का गणित इसके लिए जिम्मेदार है, या भारत जोड़ो यात्रा ? भाजपा के अधिकांश नेता इसके सदस्य हैं इसलिए बहुत संभव है कि अब यही नई दिशा हो। राहुल गांधी भी यात्रा के बीच आरएसएस की विचारधारा पर हमले करते आ रहे हैं। खाकी नेकर में आग, सावरकर से जुड़े बयान ने शायद इस मुद्दे पर यह सख्त इंटरव्यू देने के लिए मजबूर किया हो। जो भी हो, देश इन बातों को एक अथॉरिटी के बयान की तरह देखता है या नहीं, लेकिन मीडिया इसी तरह रिपोर्ट जरूर करता है। यह तनाव की राजनीति अगर चुनाव के लिए है तो खतरनाक है। यहां उम्मीद केवल नए भारत से है कि वह इंसान-इंसान में इस दूरी पर यकीन की बजाय कर्मठता को महत्व देगा। यही हमारी मूल पहचान है- सतत, सहज व स्वीकार्य भाव। तुलसीदास जी ने कहा है- नरू जड़ चेतन गुन-दोषमय विश्व कीन्ह करतार, संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि विकार।। हंस जैसे पानी को छोड़ दूध ले लेता है वैसा ही हमें भी करना चाहिए। गुणों को ले लेना चाहिए, दोषों को भूल जाना चाहिए। (लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)

 

 

 

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