-ताराचंद वर्मा एडवोकेट
देश में दलितों पर जाति के आधार पर होने वाले उत्पीड़न, हिंसा, नृसंहार के आंकड़ो को ही देखें तो राजस्थान ऐसा प्रदेश है जो हमेशा अव्वल रहा है। पिछले 3 वर्षों के आंकड़े ही बताते है कि प्रदेश में औसतन हर वर्ष 111 दलितों की हत्या की गई, 598 दलित महिलाओं और 145 बच्चीयों के साथ बलात्कार किया गया है। तथा 27544 से अधिक दलितों को जाति के नाम पर उत्पीड़ित, अपमानित व अभित्रस्त किया गया है। वर्ष 2024 में हर महीने अनुसूचित जाति के 6 व्यक्तियों की हत्या, 39 महिलाओं के साथ बलात्कार तथा करीब 17 लोगों के साथ उत्पीड़न के मामले घटित हुए हैं। हालांकि देश में इस तरह की हिंसा व उत्पीड़न को रोकने, पीड़ितों को न्याय दिलाने व पुर्नवास के लिए वर्ष 1989 में विशिष्ट कानून अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम बनाया गया, तथा इसे सुव्यवस्थित लागू करने के लिए 1995 में नियम भी बनाए गए, जिनमें वर्ष 2015 में संशोधन कर कई तरह के नए अत्याचारों जैसे, घोड़ी से उतारना, मैला साफ करने व ढोने के लिए मजबूर करना, डायन कह कर अपमानित करना भी शामिल कर और अधिक विस्तारित व मजबूत बनाया गया, जो 2016 से पूरे देश में पूर्व की भांति ही और अधिक विस्तृत रूप से लागू हो गया।
इस कानून में दलितों पर होने वाले उत्पीड़न की रोकने के लिए, न्याय तथा पुर्नवास के कई अच्छे प्रावधान किये गए है, जिनमें अत्याचार परक क्षेत्रों को चिन्हित करना, ऐसे क्षेत्रों में विशेष पुलिस बल तैनात करना, जागरूकता केंद्रों की स्थापाना करना, उनके रखरखाव के लिए बजट आवंटित करना, पुलिस गश्त सुनिश्चित करना, संरक्षण कक्ष स्थापित करना, अनुसूचित जाति/जनजाति के लोगो में सुरक्षा की भावाना पैदा करना, कार्यशालाओं का आयोजन करना, पीड़ितों को यात्रा भत्ता, दैनिक भत्ता, भरण-पोषण व्यय, परिवहन सुविधा मुहैया करवाना, इत्यादि भी शामिल है, लेकिन शायद यह कानून शुरुआत से ही इस देश में प्रशासनिक तंत्र के लिए प्राथमिकता का नहीं रहा, मैंने अपने पूरे 20 वर्षों के कार्य अनुभवों में कभी भी इस कानून के प्रावधानों को पूरी तरह लागू होते नहीं देखा, हालांकि यह कानून सही ढंग से लागू हो, लागू करने में लापरवाही बरतने वालों के खिलाफ कार्यवाही हो, इन सबकी निगरानी के लिए इस कानून के नियम 16, 17 व 17 (क) में तीनों स्तर राज्य, जिला व उपखंड पर निगरानी कमेटी बनाने की व्यवस्था करता है, और हर स्तर पर मुख्य पदभारित करने वाले पदाधिकारी को ही इसकी जिम्मेदारी दी गई है, जैसे राज्यस्तर पर मुख्यमंत्री, जिला स्तर पर जिला कलेक्टर व उपखंड स्तर पर उपखंड अधिकारी इन कमेटियों के अध्यक्ष बनाए गए है।
नियम 16 के तहत हर राज्य में एक प्रभावी निगरानी तंत्र स्थापित करने और अत्याचारों को कम करने के उद्देश्य से राज्य स्तरीय मॉनिटरिंग और विजिलेंस (निगरानी और सतर्कता समिति) कमेटी गठन की व्यवस्था की गई है, जो हर 6 माह में (जनवरी व जुलाई माह) बैठक सुनिचित कर राज्य में 1. कानून के कार्यांवयन की निगरानी, 2. अत्याचार के मामलों पर सतर्कता, 3. पीड़ितों को सहायता और पुनर्वास, 4. सामाजिक जागरूकता और रोकथाम, 5. प्रशासनिक जवाबदेही ये समितियां सामाजिक जागरूकता अभियान चलाने और जातिगत भेदभाव को कम करने के लिए उपाय सुझाती हैं। इस पूरे कानून का मकसद केवल सजा देना पर्याप्त नहीं है; अपितु अत्याचार की जड़ में सामाजिक मानसिकता को बदलना जरूरी है। जिसे यह समितियां शिक्षा और संवाद के माध्यम से संभव बना सकती हैं। इस प्रकार नियम 17 व 17 (क) जिला कलेक्टर व उपखंड अधिकारी की अध्यक्षता में जिला व उपखंड स्तर पर कमेटी का गठन सुनिश्चित करता है, यह कमेटी भी हर तीन माह में कम से कम एक बार बैठक सुनिश्चित करेगी कर, कानून के प्रभावी क्रियांवयन की निगरानी करेगी।
लेकिन सरकारी आंकड़े ही बताते है कि राजस्थान में इन कमेटियों की स्थिति बहुत खराब है, राज्य स्तर कमेटी की बैठक करीब 13 वर्षों बाद 2023 में आयोजित की गई है, उपखंड स्तर की कमेटियों का कोई अता-पता नहीं है, जिला कमेटियों का कमोबेश गठन जरूर किया जाता है, लेकिन कानून की भावना के अनुरूप काम करें, ऐसा परिवेश नहीं बनाया जाता है, कुछ वर्षों पूर्व मुझे जालोर, सिरोही, पाली इत्यादि जिलों की कमेटी के सदस्यों से मिलकर इन कमेटियों के कार्यव्यवहार के बारे में जानने का मौका मिला, अनुभव बहुत ही चिंताजनक रहे, कई सदस्यों को तो यह भी पता नहीं था कि वह इतनी महत्वपूर्ण व ताकतवर कमेटी के सदस्य है। कुछ सदस्यों ने बैठकों की सूचना समय पर नहीं मिलने, बैठकें सही ढंग से आयोजित नहीं करने जैसे गंभीर तथ्य भी सांझा किये है। कमोबेश यह कहा जा सकता है कि इस कानून के क्रियांवयन के लिए बनने वाली कमेटियां ही वेंलटीलेटर पर पड़ी है, बिना निगरानी के दलित अत्यचारों को रोक पाना शायद संभव नहीं है। इन निगरानी कमेटियों के निष्क्रियता एवं अभाव में दलितों पर होने वाले अत्याचारों को रोक पाना संभव नहीं है, 2019 में 1,121 दोषियों को सजा, 2020 में यह संख्या घटकर 686 होना, 2020 में सजा की दर मात्र 7.84 प्रतिशत रही है, जो पिछले पांच वर्षों में सबसे कम थी, यह कानूनी प्रक्रिया में कमी को दर्शाता है। यह महत्वपूर्ण कमेटियां प्रदेश में सक्रिय होती तो, शायद आज हमारे बीच जालोर को अबोध बालक इंद्र कुमार मेघवाल भी जिंदा होता, और पाली का नौजवान जितेंद्र कुमार मेघवाल भी, मुझे यह यकीन है कि राजसमंद के घीसाराम सालवी के शव को घंटों तक रास्ते में रोक कर अपमानित करने वाले आरोपियों के सम्मन में जुलूस निकालने की कोई हिमाकत नहीं करता, ना ही कोई जालोर में दलित दूल्हे की घोड़ी छीन कर ले जाता, और जयपुर में पुलिस अधिकारी को घोड़ी पर बैठकर बारात निकालने के लिए पुलिस सुरक्षा की जरूरत होती, शायद दौसा में भी दलित बच्ची के साथ दुष्कर्म की रिपोर्ट दर्ज करने से मनाही नहीं होती, टोंक के कालूराम को बाल कटवाने के लिए पुलिस की शरण में नहीं जाना पड़ता।
प्रदेश में इस तरह बढ़ते दलित उत्पीड़न को रोकने में यह मॉनिटरिंग एवं विजिलेंस कमेटियां बहुत ही महती भूमिका निभा सकती है, यदि इन कमेटियों के गठन व बैठकों को गंभीरता से लिया जाएं। अपराधों के बढ़ते मामले और सजा की कम दर सामाजिक सुधार, सख्त कानूनी अमल, और प्रशासनिक जवाबदेही की आवश्यकता को रेखांकित करती है। इसके लिए शिक्षा, आर्थिक सशक्तिकरण, और जातिगत भेदभाव के खिलाफ जागरूकता अभियान जरूरी है। साथ ही मॉनिटरिंग और विजिलेंस कमेटी एक्ट के प्रभावी कार्यांवयन की रीढ़ है। ये न केवल अत्याचारों को रोकने और पीड़ितों को न्याय दिलाने में मदद करती हैं, बल्कि सामाजिक बदलाव की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम है। हालांकि, इनका वास्तविक प्रभाव तभी संभव है जब इन्हें सक्रिय, स्वतंत्र और संसाधन-संपन्न बनाया जाए। सरकार और नागरिक समाज को मिलकर इन समितियों को मजबूत करने की जरूरत है ताकि दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार को जड़ से खत्म किया जा सके। (लेखक दलित अधिकार कार्यकर्ता हैं)