-वेदव्यास
भारत में दलित और वंचित समाज के मसीहा डॉ. भीमराव अंबेडकर यदि आज जीवित होते, तो शायद उन्हें यह सब देखकर गहरा आघात लगता कि आजादी के 75 साल बाद भी भारत के लाखों-करोड़ों लोग छुआछूत, भेदभाव और सामाजिक-आर्थिक गुलामी का नारकीय जीवन जी रहे हैं। डॉ. अंबेडकर को आज यह जानकार भी भारी निराशा होती कि जिस वर्ण व्यवस्था और जाति आधारित समाज को वह बदलना चाहते थे, उसमें जातीय विभाजन का ढांचा वर्तमान में पहले से भी अधिक जटिलता और मजबूती के साथ खड़ा है। बहिष्कृत हितकारिणी सभा के संस्थानायक, देश के प्रथम विधि मंत्री और 14 अक्टूबर, 1956 को हिंदू धर्म से मुक्त होकर नागपुर में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेने वाले डॉ. भीमराव अंबेडकर को आज यह देखकर भी भारी निराशा होती कि जहां अमेरिका में नीग्रो समाज दासता से मुक्त हो चुका है और दक्षिण अफ्रीका में नस्लभेद समाप्त हो चुका है, वहां भारत का दलित समाज और महिला समाज आज भी दासता और भेदभाव का संघर्षपूर्ण जीवन जी रहा है।
डॉ.भीमराव अंबेडकर को हमने तो ‘भारत रत्न‘ की उपाधि उनके मरने के बाद एक राजनीतिक मनोभाव के कारण ही दी है और उनके जन्मदिन को सार्वजनिक सरकारी अवकाश घोषित किया है, लेकिन भारतीय समाज की सच्चाई तो आज भी यही है कि दलित ही समाज का मैला अपने सिर पर ढो रहा है तथा दलितों पर ही सबसे अधिक सामाजिक उत्पीड़न हो रहा है।
डॉ. अंबेडकर के सोच और विचार का यदि कोई आज पढ़े तो उसे पता चलेगा कि दुनिया के 6 प्रमुख ज्ञानियों में से एक डॉ. अंबेडकर ने ही भारत में ‘सामाजिक परिवर्तन‘ का पहला सपना लिखा था और संविधान में समता, न्याय, बंधुत्व और राष्ट्रीयता की बुनियादी अनिवार्यता की प्रतिपादित किया था। ‘एक व्यक्ति-एक वोट‘ की अवधारणा के जनक डॉ. अंबेडकर ने ही कहा था कि प्रज्ञा, करुणा और समता के मार्ग पर चलकर ही धर्म पर आधारित समाज व्यवस्था को बदला जा सकता है और यह सामाजिक ढांचा यदि नहीं बदला गया, तो यह लोकतंत्र भी ढह जाएगा।
डॉ. अंबेडकर इस स्वतंत्र भारत के पहले व्यक्ति और ऐसे समाज सुधारक थे- जिन्होंने ‘सभ्य समाज‘ के महत्व को समझाते हुए कहा था कि-सरकार एक ऐसा संगठन है, जो (1) जनता की जीवन रक्षा, स्वतंत्रता सुख, भाषा और मानव धर्म पालन के अधिकारों की रक्षा करता है। (2) दलित वर्गों को समान अवसर प्रदान करके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक असमानताओं को दूर करता है तथा (3) हर नागरिक को अभाव और भय से मुक्ति प्रदान करता है। वह कहते थे कि अच्छी सरकार वही है, जो एक समुदाय को दूसरे समुदाय के शोषण से बचाए और देश के आंतरिक उपद्रवों, हिंसा और अव्यवस्था पर नियंत्रण करे। डॉ. अंबेडकर सोचते थे कि सरकार की सत्ता और व्यक्ति की स्वतंत्रता में संतुलन होना चाहिए, क्योंकि स्वतंत्रता मात्र राजनीतिक ही नहीं है, अपितु यह सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक और अध्यात्मिक भी होनी चाहिए। हमें शायद याद नहीं होगा कि जिस ‘सामाजिक न्याय‘ का राजनीतिक ढोल इन दिनों देश के राजनीतिक दल पीट रहे हैं वह डॉ. अंबेडकर की ही देन है।
डॉ.अंबेडकर कार्ल मार्क्स की बात को आगे बढ़ाते हुए सदैव कहते थे कि जनता के दो ही जुड़वां दुश्मन हैं, जिनमें पहला पूंजीवाद है और दूसरा ब्रह्मणवाद है। ब्रह्मणवाद की मूल प्रवृत्ति ही स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के खिलाफ है। समाज में तरह-तरह की गुलामी का प्रादुर्भाव ही हिंदु विधि-विधान के रचनाकार मनु (600 ईसा पूर्व) की संहिता मनु स्मृति से हुआ है, क्योंकि स्मृति का मुख्य उद्देश्य ही भारत में जाति प्रथा को दैवी मान्यता प्रदान करता है और जाति भावना के महत्व को बढ़ाना है तथा सवर्णों की श्रेष्ठता स्थापित करना है। इसीलिए डॉ. अंबेडकर से जब किसी ने पूछा कि अछूतों के लिए स्वराज क्या होगा? तब उन्होंने गहरी पीड़ा के साथ कहा था कि-विधायिका उदासीन होगी और कार्यपालिका गूंगी होगी।
डॉ. अंबेडकर ने अपनी पुस्तक-‘अछूत‘ की प्रस्तावना में कहा था कि-आज विद्वता का ठेका जिन जातियों ने ले रखा है, वह अभी तक किसी एक ‘वाल्तेयर‘ को पैदा नहीं कर सकी है, जो बौद्धिकता की निष्पक्षता दिखाए। डॉ. अंबेडकर के विचार, दर्शन और जीवन पर संत कबीर, कार्ल मार्क्स, ज्योतिबा फुले, रानाडे और गौतम बुद्ध का प्रभाव था और वह कहते थे कि-मनुष्य होना ही जब कठिन हो गया हो, तो फिर कोई साधु कैसे हो सकता है?
डॉ. भीमराव अंबेडकर भारतीय संविधान के निर्माता कहे जाने के बाद भी एक लोकतांत्रिक विडंबना के रूप में हमें इसलिए भी आज दिखाई दे रहे हैं कि-हमारा समाज परिवर्तन के सत्य को नहीं समझ रहा है। यही कारण है कि-उनका यह नारा कि-शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो, अब पूरी तरह जातीय आरक्षण और धार्मिक संरक्षण में फंस गया है तथा दलित समाज की मायावती राजनीति ने और कांग्रेस भाजपा के हिंदूवाद ने नहीं समझा है। डॉ. अंबेडकर इसलिए इस धरती पर हर अच्छी चीज आसमान से नहीं गिरती है, वरन हर विकास, परिवर्तन की कीमत मांगता है। जो कीमत देगा, वही प्रगति करेगा।
डॉ. भीमराव अंबेडकर कहते थे कि-आज देश के प्रत्येक नागरिक में समान राष्ट्रीयता की भावना होना जरूरी है और हमें सोचना चाहिए कि हम सर्वप्रथम भारतीय हैं और उसके बाद ही और कुछ हैं। उनका सोच था जातीय व्यवस्था इस भारत के पुरातन पंथियों और कट्टरपंथियों के हाथ में एक ऐसा हथियार है, जो हमारे सभी सुधार और परिवर्तनों की हत्या कर रहा है, क्योंकि जातिभेद का महादानव जब तक हमारे समाज में रहेगा, हम कोई सच्चा सामाजिक-आर्थिक सुधार कभी नहीं कर पाएंगे। डॉ. अंबेडकर का तब गांधीजी के साथ जाति धर्म के सवालों पर गहरा मतभेद भी था, लेकिन वह गांधीजी का आदर करते हुए भी भारतीय संविधान की अजर-अमर व्याख्याओं के लिए आज भी याद किए जाते हैं।
डॉ. अंबेडकर को याद करते हुए-हमें अब एक बार फिर यही सोचना चाहिए कि-भारतीय संविधान में उनके द्वारा स्थापित नीति-निर्देशक तत्व ही आज हमारे लोकतंत्र के प्राण हैं, क्योंकि जातिवाद ही समाजवाद का दुश्मन है, तो धर्मवाद ही पंथ निरपेक्षता का शत्रु है। संविधान सभा में उन्होंने यही तो कहा था कि हमें स्वतंत्रता को किसी महान व्यक्ति के आगे समर्पित नहीं करना चाहिए, क्योंकि स्वामी भक्ति और वीर पूजा तो पतन और तानाशाही का मार्ग है। अतः राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक-आर्थिक-समानता का स्वर्ग बनाया जाना चाहिए। अतः मुझे आज देश के जातीय और धार्मिक विघटन को देखकर लगता है कि काश! आज अंबेडकर जीवित होते! (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं)