21.1 C
Jaipur
Wednesday, March 29, 2023
Homeग्रामीण भारतविलुप्त होती कला को बचाने की चुनौती

विलुप्त होती कला को बचाने की चुनौती

-अमरेंद्र सुमन (दुमका, झारखंड)

बड़े पैमाने पर आर्टिफिशियल (प्लास्टिक, फाइबर व अन्य मिश्रित धातुओं से निर्मित) वस्तुओं का उत्पादन और घर-घर तक इनकी पहुंच से जहां एक ओर कुम्हार (प्रजापति) समुदाय के पुश्तैनी कारोबार को पिछले कुछ वर्षों से भारी क्षति का सामना करना पड़ा है, वहीं दूसरी ओर चीन निर्मित वस्तुओं का आयात और बड़े पैमाने पर भारत के बाजारों में उनका व्यवसाय भी उनके आर्थिक पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण रहा हैं। गरीबी, अशिक्षा, आर्थिक पिछड़ेपन, सामाजिक तथा राजनीतिक स्तर पर उपेक्षित जीवन, रुग्न मानसिकता, माटी कला बोर्ड की स्थापना का न होना, काम के प्रति अनिच्छा, महंगाई, हाथ निर्मित वस्तुओं की मांग में भारी कमी, उन्नत शिल्प का अभाव और तकनीकी शिक्षा की कमी उन्हें उनके पुश्तैनी पेशे से दूर करता रहा है।

पहले जिस तरह कुम्हार समुदायों में दुर्गापूजा, दीपावली और छठ जैसे व्रतों में मिट्टी से निर्मित वस्तुओं के निर्माण की जो तत्परता और खुशी दिखाई पड़ती थी, अब उसमें आसमान-जमीन का अंतर हो चुका है। सामान बनाने के अनुकूल मिट्टी की कमी, कच्ची मिट्टी की वस्तुओं को पकाने के लिए उत्तम कोयला तथा बाजार तक वस्तुओं की पहुंच बनाने के लिए संसाधनों का घोर अभाव इस व्यवसाय के विरुद्ध एक बड़ा संक्रमण काल रहा है। यह अलग बात है कि पीढ़ी दर पीढ़ी से चली आ रही इस व्यवस्था से जुड़ी प्रजापति समाज की अधिकांश आबादी आज भी अपने पुश्तैनी पेशे से ही जुड़ी है, तथापि दो जून रोटी की व्यवस्था के अलावा उनके समक्ष और कुछ भी ऐसी व्यवस्था नहीं जिससे उनके घर-परिवार का पेट भर सके।

पिछले 38 वर्षों से इस पुश्तैनी कारोबार की बदौलत अपनी जीविका चला रहे केवटपाड़ा (मोरटंगा रोड) दुमका निवासी सुरेंद्र पंडित बताते हैं कि पर्व-त्योहार, जन्म-मृत्यु, शादी-ब्याह जैसे अवसरों पर कुम्हारों द्वारा निर्मित मिट्टी की सामग्रियों की भरपूर मांग हुआ करती थी। दीपावली जैसे महत्वपूर्ण पर्व पर गणेश-लक्ष्मी सहित अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों को बनाने से लेकर शादी-ब्याह में सरपोस, ढक्कन, हाथी-घोड़ा, गुल्लक, गमला, कुल्हड़ (चाय की प्याली) प्याला (पानी पीने का बर्तन) तसली, बाटी, दीपक, ईंट, खपड़ा, नाद, दही कोहिया और अन्य सामग्रियों की खरीद के लिए दूर-दूर से लोग कुम्हारों के घरों पर पहुंच जाया करते थे। दुर्गापूजा, दीपावली व छठ जैसे पर्वों का तो महीनों पूर्व से इंतजार रहा करता था लेकिन अब परिस्थितियां बिल्कुल बदल चुकी हैं। न तो कुम्हार पेशेवर रह गए हैं और न ही उनके पेशे में वह पैनापन रह गया है जिसकी बदौलत वह अपने व्यवसाय को जीवित रख सकें। वह कारीगरी भी लुप्त होती जा रही है जो बाप-दादा के समय से चली आ रही थी। इस व्यवसाय को बनाए रखने के लिए धन का अभाव और व्यवसाय के अनुसार मुनाफों का न होना भी उनके लिए परेशानी का सबब बनता गया।

सुरेंद्र पंडित के अनुसार पहले का जमाना काफी अच्छा था। मिट्टी के सामानों की हमेशा मांग रहती थी। छोटी-छोटी चीजों के लिए महीनों पहले लोग ऑर्डर दे दिया करते थे। कभी-कभार मुंहमांगी कीमत भी मिल जाया करती थी। सीमेंट की छोटी बोरी भरा कोयला मात्र पांच रुपए में उपलब्ध हो जाया करता था जबकि अभी उसी एक सीमेंट बोरी कोयला के लिए इन दिनों भारी कीमत चुकानी पड़ती है। इसी तरह एक ट्रेलर मिट्टी के लिए अभी हजार से पंद्रह सौ रुपए का भुगतान करना पड़ता है। मिट्टी मिलाने से लेकर कच्चे माल को पकाने तक की मेहनत अलग से। एक ट्रेलर मिट्टी में कितने कुल्हड़ अथवा दीपक बनाए जा सकते हैं ? इसका जवाब देते हुए सुरेंद्र पंडित कहते हैं-एक ट्रेलर मिट्टी में 50 हजार ही छोटा प्याला अथवा दीपक बनाया जा सकता है। पचास रुपए सैकड़ा छोटा प्याला व सौ रुपए सैकड़ा बड़ा प्याला बाजार में बेचते हैं। कुम्हारपाड़ा, दुमका के सुखी पंडित का कहना है कि वैसे तो यह व्यवसाय बुरा नहीं है किंतु इस पेशे से जुड़े रहने के लिए तन, मन, धन से तैयार रहने की जरूरत है। यह अलग बात है कि आज की युवा पीढ़ी अपने पेशेवर व्यवसाय से प्रतिदिन दूर होती जा रही है। मात्र चार-पांच सौ रुपए प्रतिदिन कमाई करने वाले सुरेंद्र पंडित व सुखी पंडित के लिए अच्छी बात यह है कि कुछ छोटी-छोटी कंपनियों के माध्यम से कारोबार के लिए न्यूनतम ब्याज पर उन्हें एकमुश्त छोटी-छोटी राशि बतौर ऋण मिल जाया करती है जिसका भुगतान प्रत्येक सप्ताह के प्रथम दिन करते हैं। इससे उनका व्यवसाय निर्वाध जारी रहता है।

मालूम हो, दुमका शहरी क्षेत्र में कुम्हारों की संख्या तकरीबन दो से तीन हजार के बीच है। कुल दस प्रखंडों वाले इस जिले में इनकी जनसंख्या 15 से 17 हजार है। अधिकांश लोग पुश्तैनी कारोबार से ही रोजी-रोटी चला रहे हैं। झारखंड के 12 विधानसभा सीटों व 2 लोकसभा सीटों पर अपने प्रतिनिधित्व को लेकर लगातार यह समाज संघर्षरत है। अपुष्ट आंकड़ों के मुताबिक झारखंड में प्रजापति (कुम्हारों) की कुल आबादी 17 से 22 लाख है। इस समाज के लोगों का कहना है कि मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग काफी पुराना है। मिट्टी के बर्तन से ही जीवन सुरक्षित रह सकता है। कुम्हार के बर्तन के उपयोग से 50 फीसदी बीमारी स्वतः ही समाप्त हो जाती है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में मिले सभ्यता के अवशेष में मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग स्पष्ट इस बात की ओर इंगित करता है कि ईसा पूर्व इस कला को पहचान मिल चुकी थी। इस समाज के बड़े-बुजुर्गों का कहना है कि कुम्हार ही सृष्टि के प्रथम राजा हैं किंतु वर्तमान में स्थिति यह है कि दूसरों के घरों को रोशन करने वाला यह समाज आज खुद अंधेरे में जीवन जीने को अभिशप्त है।

जिस देश में 18 करोड़ की जनसंख्या सिर्फ कुम्हारों की हो, उस देश में रोजी-रोटी के लिए इन्हें संघर्ष करना पड़े तो यह गंभीर मंथन का विषय है। मटखानों की व्यवस्था, ईंट भट्ठों की बंदोबस्ती, राष्ट्रीय माटी कला बोर्ड की स्थापना, मिट्टी की व्यवस्था, सरकारी कार्यालयों, बस स्टाॅप और रेलवे प्लेटफाॅर्म पर मिट्टी के कुल्हड़, प्यालों व अन्य बर्तनों की अनिवार्यता ही सरकार से इनकी प्रमुख मांगें हैं। चीन निर्मित सामानों के प्रतिबंध के बाद इस समाज में अपने कारोबार के प्रति एक नई चेतना देखने को मिल रही है। एक नए सफर के श्रीगणेश के साथ वोकल फॉर लोकल के लिए, यह समाज लगातार प्रयत्नशील भी दिख रहा है।

Bharat Update
Bharat Update
भारत अपडेट डॉट कॉम एक हिंदी स्वतंत्र पोर्टल है, जिसे शुरू करने के पीछे हमारा यही मक़सद है कि हम प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता इस डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी परोस सकें। हम कोई बड़े मीडिया घराने नहीं हैं बल्कि हम तो सीमित संसाधनों के साथ पत्रकारिता करने वाले हैं। कौन नहीं जानता कि सत्य और मौलिकता संसाधनों की मोहताज नहीं होती। हमारी भी यही ताक़त है। हमारे पास ग्राउंड रिपोर्ट्स हैं, हमारे पास सत्य है, हमारे पास वो पत्रकारिता है, जो इसे ओरों से विशिष्ट बनाने का माद्दा रखती है।
RELATED ARTICLES

Leave a reply

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments