-वेदव्यास
जिस तरह बहता हुआ पानी और बोलता हुआ शब्द अपना रास्ता खुद बनाते हैं उसी तरह साहित्य में समाज और समय का संवाद भी अनवरत जारी रहता है। कौन लिखता है कौन पढ़ता है और कौन बोलता है उसकी प्रतिध्वनियां ही मनुष्य के मन और विचार में संवेदना का संसार रचती हैं। ज्ञान और विज्ञान के सभी विकास और सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक समता और विषमता के सभी कुरुक्षेत्र, केवल सृजन और संघर्ष से उदित शब्द ही लड़ते हैं। आज 21वीं शताब्दी के सूचना और प्रौद्योगिकी के हृदयहीन बाजार में इसीलिए हमें कभी-कभी ऐसी भी लगता है कि शायद शब्द कहीं खो गए हैं, मौन हो गए हैं या फिर संवेदनहीन हो गए हैं। लेकिन धैर्य से देखें और सोचे तो आपको दिखाई देगा कि समय का प्रत्येक सत्य, आज भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के बीच अकेला ही संचरण कर रहा है और सृजन के नित्य नए सेतु और वाद-विवाद तथा प्रतिवाद के आधार भी बना रहा है। साहित्य से समाज तक की यह शब्द यात्रा परिवर्तन की एक ऐसी मशाल हैं जो हजारों भाषाओं के साथ करोड़ों की जन चेतना में सद्भाव, सहिष्णुता और मानवीय सरोकारों की खिड़कियां खोलती रहती है। कोई 5 हजार साल से सभ्यता और संस्कृति का उज्जवल पथ यह साहित्य ही आलोकित कर रहा है क्योंकि शब्द कभी मरता नहीं है और नूतन विचरण करता रहता है।
राजस्थान को भारत और भारत को विश्व यह साहित्य का सत्य, शिव और सुंदरम् ही बनाता है और धर्म, जाति भाषा और क्षेत्रीयता की सरहदों को लांघकर शब्द की शाश्वत शक्ति और भक्ति का निर्माण भी करता है। राजस्थान ही में कोई दो हजार वर्ष की शब्द और साहित्य की चेतना यह बताती हैं कि राजपाट और सुख-दुःख बदलते रहते हैं लेकिन रेत और पानी का रिश्ता कभी नहीं बदलता। धरती और आकाश की इच्छाएं कभी नहीं हारती और शब्द की विश्वसनीयता का गुरुत्वाकर्षण कभी नहीं मरता। आज हमारे समाज में दुर्भाग्य से मनुष्य और प्रकृति के बीच एक ऐसा मनमुटाव बढ़ रहा है कि लोग अपने भूत, भविष्य और वर्तमान की त्रिकाल छाया से ग्रस्त है और सामाजिक, आर्थिक गैर बराबरी के जलवायु परिवर्तन से व्याकुल और शोकाकुल अधिक है। इधर टैक्नोलाॅजी लगातार मनुष्य को दिशाहीन और पैसे की खोज में समाज को संवेदनहीन और केवल सुख-शांति की आवश्यकता, हमारे जीवन दर्शन को अत्यधिक असुरक्षित बना रही है तो उधर सत्ता और व्यवस्था की आदिम हिंसक प्रवृत्तियां, शब्द और सत्य और सत्य पर निरंतर हमले कर रही हैं। फिर अराजकता के बीच अविश्वनीयता का एक ऐसा माहौल अब बन गया है कि वर्षा ऋतु में कोयल जैसे मौन हो जाती है और मेंढ़क जैसे मुकर-वाचाल हो जाते हैं वैसे ही लेखक और साहित्यकार भी बाजार, मीडिया और राजनीति के कोलाहल में आजकल अपने को अनुसना महसूस कर रहा है।
लेकिन मित्रों! आप सब जानते हैं कि शब्द की नदी सरस्वती भी समय और अज्ञान के अंधेरे में कई बार मन से ओझल हो जाती है लेकिन वह देर-सेवर बूंद-बूंद बनकर, अग्नि परीक्षा का सृजन भी करती है और जन्म से मृत्यु तक मनुष्य की प्राण वायु बनकर बोलती भी है। वैदिक ऋचाओं से लेकर मीरां बाई के पदों तक और रामायण से लेकर महाभारत तक यह शब्द ही साहित्य और समाज को समय के सभी प्रश्नों से मुठभेड़ करना सिखाता है। यह शब्द ही कभी निर्गुण और सगुणधारा बनकर बहते हैं तो यह सृजन का सरोकार ही कभी युद्ध और शांति का भाग्य लिखता है तो यह क्रोंचवध ही कभी शिकारी को ऋषि वाल्मीकि बनाता है तो कभी रवीन्द्रनाथ बनकर घर-घर में गाया जाता है तो कभी स्वामी विवेकानंद बनकर विश्व को धर्म की सनातन सहिष्णु व्याख्या देता है तो कभी भीमराव अंबेडकर बनकर मनुष्य होने का अधिकार और सम्मान भी सिखाता है। इस तरह शब्द कभी निरर्थक, लाचार और उदास नहीं होता तथा वह उपेक्षा और विस्मृति के गर्भ में रहकर भी अधिक प्रखर और अमृतधारा बन जाता है। ऐसे में शब्द और साहित्य का लोकतंत्र-सदैव राजनीति के आगे चलने वाली मशाल ही होता है और राजा की हिंसा में नहीं अपितु प्रजा (जनता) की अहिंसा में ही फलता-फूलता है। सामाजिक चेतना का प्रथम सृजनकर्ता और निर्माता यह शब्द ही है और साहित्यकार इसी पुनर्जागरण का प्रतिफल रचता और गाता है क्योंकि मनुष्य का शाश्वत सत्य तो गरीब और सर्वहारा की मंगलध्वनि में ही युगों-युगों तक प्रवाहमान बना रहता है। अतः घबराइए मत! शब्द और साहित्य को समाज के भीतर व्याप्त गैर बराबरी, हिंसा-प्रतिहिंसा और झूठ-सच को उजागर करने में अर्पित करते हुए वर्तमान समाज को भविष्य का नया सपना दीजिए। शब्द और साहित्य की प्रासंगिकता फिर आज यही है कि यथास्थिति को बदलने का जोखिम उठाएं। रागदरबारी को छोड़कर राग भैरवी और राग कल्याणी गायें। मनुष्य होने की गरिमा का महाकाव्य सुनाएं और दसों-दिशाओं में व्याप्त मुक्ति संग्राम की जनचेतना को एकजुट बनाएं। (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार हैं)