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Saturday, April 27, 2024
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दलितों को पानी पीने के हक को लेकर अंबेडकर ने ऐसा विद्रोह किया कि मनुवाद की जड़ें हिल गई

बाबूलाल नागा

महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के महाड़ नामक गांव की नगरपालिका ने 1924 में गांव चवदार तालाब के पानी का उपयोग करने का अधिकार अछूतों को दिया, परंतु महाड़ के सवर्ण इस निर्णय के विरुद्व थे। इस कारण से अछूत तालाब के पानी को छूने का साहस न कर सके। हालांकि ईसाई, मुस्लिम, पारसी सभी लोग उस तालाब का पानी हर्गिज नहीं छूने देंगे। 19 व 20 मार्च 1927 को डॉ. अंबेडकर की अध्यक्षता में हुई दलित जाति परिषद में इस मुद्दे पर व्यापक चर्चा हुई। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने उपस्थित अछूतों से कहा-‘‘ऐसा प्रयत्न करो, जिससे तुम्हारे बाल-बच्चे तुमसे अधिक अच्छी अवस्था में जीवन बिता सके। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे, तो मनुष्य के माता-पिता और पशु के नर-मादा में कोई अंतर नहीं रहेगा।‘‘

तत्पश्चात रात को विषय नियामक समिति ने स्पष्ट रूप से निर्णय लिया कि चवदार तालाब से पानी लेने के अधिकार को अछूत कल साकार करेंगे।

जब तकरीबन 5 हजार लोगों ने तालाब की ओर कूच किया तो बाबा साहब ने कहा कि ‘‘हम अपने अधिकार की स्थापना करने तालाब पर जा रहे हैं।‘‘

रैली शांतिपूर्वक तालाब पर पहुंची। डॉ. अंबेडकर तालाब के किनारे खड़े हो गए और अन्य फिर बैठकर तालाब का पानी हाथों की अंजुरी में भर कर पिया, इस क्रिया को कई अन्यों ने भी दोहराया, बाद में जुलूस फिर से सभा स्थल पर लौट गया। मगर जल पर इस अधिकार की दलित कवायद को सवर्ण सह नहीं पाए, वे संगठित होकर हाथों में लाठियां लेकर पांडाल की ओर दौड़ पड़े तथ जहां भी उन्हें अछूत दिखाई पड़े, उन पर हमले किए, डंडे बरसाए तथा पांडाल में भोजन कर रहे लोगों के अन्न को मिट्टी में मिला दिया।

बाबा साहब उस वक्त किसी ओर स्थान पर साथियों के साथ मंत्रणा कर रहे थे, जब उन्हें इस हमले की खबर मिली तो वे पांडाल की ओर दौड़ पड़े, उन पर भी कुछ गुंडों ने आक्रमण किया, बाबा साहब जब सभा स्थल पर पहुंचे तो देखा कि पांडाल को तहस-नहस कर दिया गया है, भोजन धूल में मिला दिया गया है और कई घायल जमीन पर पड़े कराह रहे हैं। इस दंगे के कारण 9 सवर्णों को पुलिस ने गिरफ्तार किया जिनमें से 5 को चार-चार महीने की कैद की सजा दी गई। पूरे महाराष्ट्र और भारत के प्रगतिशील पत्र-पत्रिकाओं ने डॉ. अंबेडकर के शांतिपूर्ण अहिंसात्मक सत्याग्रह की प्रशंसा की तथा मनुवादी हिंदुओं के हमले की कड़ी भर्तस्ना की गई। बाद में सनातनियों ने अछूतों के छूने से भ्रष्ट (?) हुए तालाब की शुद्धि की तथा 108 पानी के घंड़े भरकर तालाब से बाहर फेंक गए और गाय के मूत्र, गोबर, दही तथा घी भरकर कुछ घड़े ब्रह्मणों के मंत्रोच्चार के साथ तालाब में डाले गए, इस तरह तालाब फिर से शुद्ध किया गया। बाबा साहब ने 26 जून 1927 को बहिष्कृत भारत में लिखा कि -महाड़ के सनातनियों द्वारा तालाब को शुद्ध किया जाना अछूतों के लिए अपमानजनक है। (डॉ. अंबेडकरःजीवन दर्शन, पृष्ठ 58, विजयकुमार पुजारी)

यह अस्पृश्य समाज के लिए ऐतिहासिक जीत थी:- 20 मार्च की घटना के बाद सवर्णों ने तालाब पर फिर से कब्जा कर लिया। इसके जवाब में डॉ. अंबेडकर ने फिर से 25 दिसंबर को सत्याग्रह की योजना बनाई। महाड़ सत्याग्रह के दूसरे चरण को सफल बनने के लिए जगह-जगह सम्मेलन किए गए। इसी कड़ी में बम्बई में आयोजित एक सभा में 3 जुलाई 1927 को बाबासाहब ने कहा था ‘सत्याग्रह का अर्थ लड़ाई। लेकिन यह लड़ाई तलवार, बंदूकों, तोप तथा बमगोलों से नहीं करनी है बल्कि हथियारों के बिना करनी है। जिस तरह पतुआखली, वैकोम जैसे स्थानों पर लोगों ने सत्याग्रह किया उसी तरह महाड़ में हमें सत्याग्रह करना है। इस दौरान संभव है कि शांतिभंग के नाम पर सरकार हमें जेल में डालने के लिए तैयार हो इसलिए जेल जाने के लिए भी हमें तैयार रहना होगा। सत्याग्रह के लिए हमें ऐसे लोगों की जरूरत है जो निर्भीक तथा स्वाभिमानी हों। अस्पृश्यता यह अपने देह पर लगा कलंक है और इसे मिटाने के लिए जो प्रतिबद्ध हैं वही लोग सत्याग्रह के लिए अपने नाम दर्ज करा दें।’

बाबा साहब के बुलावे पर हजारों लोग फिर से सत्याग्रह के लिए इकट्ठा हुए लेकिन पुलिस ने हालात बिगड़ने की आशंका के मद्देनजर उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया। मजबूरी में पहाड़ सत्याग्रह का दूसरा चरण रद्द करना पड़ा लेकिन इसके बाद डॉ. अंबेडकर ने कानून का सहारा लिया। डॉ. अंबेडकर ने बम्बई हाईकोर्ट में करीब 10 साल तक ये लड़ाई लड़ी और आखिरकार 17 दिसंबर 1936 को अछूतों को चवदार तालाब में पानी पीने का अधिकार मिल ही गया। अछूतों के लिए एक ऐतिहासिक जीत थी।

इंसान होने का हमारा हक जताने के लिए हम यहां आए हैं:- हम अगर बाबा साहब द्वारा जल व प्राकृतिक संसाधनों पर दलित आदिवासियों के अधिकार के संबंध में व्यक्त विचारों को जानना चाहे तो हमें महाड़ सत्याग्रह के लिए आयोजित दलित जाति परिषद में व्यक्त उनके निम्न विचारों का स्मरण करना होगा, ‘‘ हम तालाब पर इसलिए जाना चाहते है कि हम भी औरों की तरह मनुष्य है और मनुष्य की तरह जीना चाहते हैं और अछूत समाज हिंदू धर्म के अंतर्गत है या नहीं, इस प्रश्न का हम हमेशा के लिए फैसला करना चाहते है।‘‘

बाबूलाल नागा
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