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Thursday, March 28, 2024
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मालिकाना हक से वंचित महिला किसान

 

-दिलीप बीदावत (बाड़मेर, राजस्थान)

राजस्थान में बाड़मेर जिले की पचपदरा तहसील के कबीरनगर की महिला किसान उमा देवी (बदला हुआ नाम) के पति का देहांत 1987 में हो गया था। आजीविका का मुख्य साधन खेती, पशुपालन और मजदूरी है। एक बेटी है जिसका पालन पोषण किया, पढ़ाया लिखाया और शादी की। पति के देहांत के बाद उनके हिस्से की खातेदारी कृषि भूमि उमा देवी के नाम होनी थी। लेकिन परिवार के भाई-बंधुओं ने चुपके-चुपके अपने नाम करवा ली। उमा देवी को उस समय पता चला जब सरकार ने अकाल वर्ष में किसानों को फसल खराब अनुदान राशि का भुगतान किया। सभी किसानों को मुआवजा मिल गया लेकिन उमा देवी को नहीं मिला। पटवारी से संपर्क किया, तो उसने बताया कि तुम्हारे नाम जमीन नहीं है। पूरा रिकॉर्ड निकलवाने पर पता चला कि देवर-जेठ ने कुछ साल पहले जमीन अपने नाम करवा ली। गांव के कायदे के अनुसार कोर्ट में मुकदमा दर्ज कराने से पहले पंच-पंचायती में मामला रखा तो उमा देवी के देवर जेठ ने तर्क दिया कि इसके लड़का नहीं है। बेटी ससुराल चली जाएगी। इसलिए जमीन हमारे नाम करवा ली। सामाजिक पंचायती में न्याय नहीं मिला। उमा देवी ने एसडीएम कोर्ट में केस फाइल किया और जमीन का हक ले पाई।

इसी क्षेत्र के गांव नवातला की नारायणी देवी (बदला हुआ नाम) के पति का देहांत हो जाने पर ससुराल वालों ने कृषि भूमि में हिस्सा नहीं देने की नियत से उसे घर से निकाल दिया। वह पीहर में मजदूरी कर अपना गुजारा चला रही है। पिता की संपत्ति में बेटियों के हक का कानून बन जाने के बाद भी नारायणी देवी को ना ससुराल में हक मिला और ना ही पीहर में। साठ वर्षीय अचकी देवी (बदला हुआ नाम) ने शादी के बाद ताउम्र घरेलू काम-काज के अलावा परिवार के खेती और पशुपालन के सत्तर फीसदी कार्यों में अपना शारीरिक और मानसिक श्रम लगाती रही लेकिन उसकी पहचान ना तो किसान के रूप हो पाई और ना ही कृषि मजदूर के रूप में। वह तो पुरूष सत्ता के मजबूत मकड़ा जाल में मक्खी की तरह खटती रही और अपना खून चुसाती रही।

यह कहानियां कोई गिनती की महिलाओं की नहीं हैं। यह कृषि के कार्यों में लगी लाखों महिलाओं की दास्तां है। सरकार के सर्वेक्षण एवं आंकड़े बताते हैं कि कृषि कार्यों, जिनमें पशुपालन भी शामिल है, में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है, लेकिन दूसरी तरफ किसान के रूप में अब तक उनकी पहचान नहीं हो पाई है। इसका सबसे बड़ा कारण है कृषि भूमि में महिलाओं को मालिकाना हक नहीं होना।

एक अनुमान के अनुसार देश में करीब 70 से 80 प्रतिशत महिलाएं खेती के मानव श्रम वाले 80 प्रतिशत कार्य करती है। शेष 20 प्रतिशत कार्य जिसमें जुताई, फसल कटाई और बाजार में बेचने के कार्य, जिनमें तकनीकी और उपकरणों का सहयोग रहता है, पुरुष करते हैं। जुताई से पहले और जुताई के बाद होने वाले कार्य ही अधिक मेहनत, समय वाले तथा महत्वपूर्ण होते हैं जो फसल को कटाई की स्टेज तक पहुंचाते हैं। लेकिन कृषि के 80 फीसदी महत्वपूर्ण कार्य करने वाली महिलाओं में से 10 प्रतिशत ही खेती की जमीन को अपना कह सकती हैं।

भारत की पिछली दो जनगणनाओं को देखें तो कृषि में महिला श्रमिकों की संख्या बढ़ी है जबकि काश्तकार (जमीन की मालिक नहीं) महिलाओं की संख्या घटी हैं। 2001 में खेती से जुड़ी कुल महिलाओं का 54.2 प्रतिशत हिस्सा कृषि श्रमिक के रूप में था जबकि 45.8 प्रतिशत महिलाएं कृषक के तौर पर जुड़ी हुई थीं। वहीं 2011 में महिला श्रमिकों का आंकड़ा बढ़कर 63.1 फीसदी हो गया और कृषक महिलाओं का घटकर 36.9 प्रतिशत रह गया। सीमांत और लघु किसान परिवारों में खेती का अतिरिक्त कार्य भी पूरी तरह से महिलाओं के हिस्से में आ गया। छोटी जमीनों के कारण केवल कृषि की अनिश्चित आय से गुजारा नहीं होने की स्थिति में पुरूष मजदूरी के लिए शहरों में पलायन कर जाते हैं और परिवार की प्रबंधन व्यवस्था के साथ कृषि का पूरा कामकाज महिलाएं करती है। लेकिन तब भी किसान के रूप में उनकी पहचान ना सरकार के जमीन के खातेदारी रिकॉर्ड में दर्ज है और ना ही सामाजिक मानसिकता में।

दसवीं कृषि जनगणना के अनुसार देश में प्रति किसान खेतों का औसत आकार 2010-2011 के 1.15 हैक्टेयर से घट कर 2015-2016 में 1.08 रह गया है। कृषि मंत्रालय द्वारा प्रत्येक पांच साल में कृषि की नीतियों का प्रारूप बनाने के लिए कराए जाने वाले इस सर्वे के अनुसार औसत आकार घटने से खेती के कार्यों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। रिपोर्ट के अनुसार 2010-2011 में महिला किसानों की संख्या 12.79 प्रतिशत यानी 1.76 करोड़ थीं जो 2015-2016 में बढ़कर 13.87 यानी 2.2 करोड़ हो गई। इस दौरान खेती की जमीन में उनकी मालिकी 10.36 से 11.50 हुई, जो नहीं के बराबर कही जाएगी। जिंदगीभर घर के काम-काज, बच्चों का पालन पोषण, परिवार के सदस्यों की सेवा के साथ-साथ कृषि के कार्य को संभालने वाली महिला का कृषि भूमि में मालिकाना हक नहीं के बराबर है।

महिलाओं के नाम कृषि या संपत्ति का मामला राजनीति, कानून और समाज की सोच से जुड़ा है। वोट की राजनीति करने वाले दल चाहे सत्ता में हो या विपक्ष में, सामाजिक सोच के अनुसार ही आगे बढ़ते हैं तथा कानून नहीं बना कर केवल थोथे बयान, दिखावटी संकल्प और बेअसरकारी नीतियां व कार्यक्रम बनाते हैं। कुछ संगठनों का तो यहां तक कहना है कि राजस्व रिकॉर्ड में कृषि भूमि के मालिक पुरूष किसान के साथ उसकी पत्नी का नाम जोड़ दिया जाए, लेकिन कोई भी सरकार यह जोखिम उठाने को तैयार नहीं दिखती।

सतत विकास लक्ष्य पांच में लैंगिक समानता हासिल करने के लिए जिन उपलक्ष्यों को प्राथमिकता से नीतियों और कार्यक्रमों में शामिल किए जाने का वादा दोहराया गया है, उसमें राष्ट्रीय कानूनों के अनुसार भूमि और अन्य प्रकार की संपत्तियों, वित्तीय सेवाओं, विरासत तथा प्राकृतिक संसाधनों के स्वामित्व और नियंत्रण की बात कही गई है, लेकिन मौजूदा कानूनों के सहारे इस लक्ष्य तक पहुंच असंभव है। जब संकल्प, घोषणाएं, वादे कागजी सजावट और वाहवाही लूटने के औजार बन जाते हैं तो नीतियां और कार्यक्रम भी बिना किसी ठोस आधार लिए होते हैं।

कृषि मंत्रालय ने वर्ष 2016 में 15 अक्टूबर को राष्ट्रीय महिला किसान दिवस के रूप में मनाने की घोषणा इस उद्देश्य से की है कि कृषि क्षेत्र में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी को बढ़ाया जा सके। लेकिन 80 प्रतिशत खेती के कार्यों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी के बावजूद तमाम कृषि योजनाओं में महिला किसानों के लिए कोई ठोस बदलावकारी कार्य नहीं दिखते हैं और जो प्रावधान किए गए हैं, उनका लाभ भी उन्हें तब तक नहीं मिलेगा, जब तक खेती की जमीन में उनकी मालिकी और किसान के रूप में उनकी पहचान नहीं होगी। कृषि में पुरुषवादी वर्चस्व में हस्तक्षेप कर महिलाओं को बराबरी पर लाने के लिए कानून, नीतियों और कार्यक्रमों में ठोस बदलाव करने होंगे। अन्यथा सतत विकास लक्ष्य, कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने वाले दावे, महिला हिंसा को रोकने और बराबरी के स्तर पर लाने के वादे महज दिखावा ही रह जाएंगे।(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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