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Saturday, April 20, 2024
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मैला ढोने की प्रथा खत्म करने के लिए क्या कदम उठाए ?

-बाबूलाल नागा

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह हाथ से मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने और आने वाली पीढ़ियों को इस ‘अमानवीय प्रथा’ से रोकने के अपने लगभग 10 साल पुराने फैसले को लागू करने के लिए उठाए गए कदमों का रिकॉर्ड छह सप्ताह के भीतर अदालत के सामने रिकॉर्ड पर रखे।

द हिंदू के मुताबिक, जस्टिस एस. रवींद्र भट के नेतृत्व वाली एक पीठ ने हाल ही में इस तथ्य को न्यायिक संज्ञान लिया कि हाथ से मैला ढोने और सीवर लाइनों में फंसे लोगों की मौत एक वास्तविकता बनी हुई है, जबकि इस प्रथा पर ‘मैला ढोने वालों का नियोजन और शुष्क शौचालयों का निर्माण (निषेध) अधिनियम, 1993’ और ‘हाथ से मैला ढोने वालों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013’ लागू करने के साथ प्रतिबंध लगा दिया गया था।

शीर्ष अदालत ने सफाई कर्मचारी आंदोलन और अन्य बनाम भारत संघ के मामले के संबंध में दिए गए अपने फैसले में इस प्रतिबंध लगा दिया था और हाथ से मैला ढोने वालों के रूप में पारंपरिक रूप से और अन्य कार्यरत लोगों के पुनर्वास का निर्देश दिया था। फैसले ने उनके ‘न्याय और परिवर्तन के सिद्धांतों के आधार पर पुनर्वास’ का आह्वान किया था। अदालत ने जोर देकर कहा था, ‘मैनुअल स्कैवेंजिंग से मुक्त किए गए व्यक्तियों को कानून के तहत उनके वैध देय को प्राप्त करने में बाधाएं नहीं आनी चाहिए।‘

27 मार्च 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने सफाई कर्मचारी आंदोलन बनाम भारत सरकार मामले में आदेश दिया था कि साल 1993 से सीवरेज कार्य (मैनहोल, सेप्टिक टैंक) में मरने वाले सभी व्यक्तियों के परिवारों की पहचान करें और उनके आधार पर परिवार के सदस्यों को 10-10 लाख रुपए का मुआवजा प्रदान किया जाए। द वायर द्वारा दायर किए गए सूचना का अधिकार (आरटीआई) आवेदन के जरिये जानकारी सामने आई कि साल 1993 से लेकर 2019 तक में देश भर में सीवर सफाई के दौरान जितनी मौतें हुई हैं, उसमें से करीब 50 फीसदी पीड़ित परिवारों को पूरे 10 लाख रुपए का मुआवजा दिया गया है। कई मामलों में मुआवजे के रूप में 10 लाख रुपए से कम की राशि दी गई।

मालूम हो कि देश में पहली बार 1993 में मैला ढोने की प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया था। इसके बाद 2013 में कानून बनाकर इस पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया था। मैनुअल स्कैवेंजिंग एक्ट 2013 के तहत किसी भी व्यक्ति को सीवर में भेजना पूरी तरह से प्रतिबंधित है। अगर किसी विषम परिस्थिति में सफाईकर्मी को सीवर के अंदर भेजा जाता है तो इसके लिए 27 तरह के नियमों का पालन करना होता है।

हालांकि इन नियमों के लगातार उल्लंघन के चलते आए दिन सीवर सफाई के दौरान श्रमिकों की जान जाती है। सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान मौत के आंकड़े बढ़ रहे हैं। दिप्रिंट में छपी खबर में बताया गया है कि बीते साल लोकसभा में केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्यमंत्री रामदास अठावले ने एक प्रश्न का जवाब देते हुए कहा था कि बीते पांच सालों में सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान 325 लोगों की मौत हुई है। केंद्रीय मंत्री सांसदों द्वारा पूछे गए एक प्रश्न का जवाब दे रहे थे। उन्होंने बताया था कि साल 2017 में 93, 2018 में 70, 2019 में 118, 2020 में 19 और 2021 में 24 सफाईकर्मियों की मौत हुईं थी। हालांकि केंद्रीय मंत्री और राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग द्वारा जारी किए गए आंकड़े में काफी अंतर देखने को मिला था। राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग ने एक आरटीआई का जवाब देते हुए कहा था कि सिर्फ 2017, 2018 और 2019 में कुल 271 सफाई कर्मचारियों की मौत हुई थी। 2019 में सीवर की सफाई के दौरान 110 लोगों, 2018 में 68 और 2017 में 193 लोगों की मौत हुई थी।

बहरहाल, जहां एक तरफ कानूनी प्रतिबंध के बाद भी आज समाज में मैला ढोने की प्रथा मौजूद है। वहीं दूसरी तरफ सिर पर मैला ढोने की इस घिनौनी कुप्रथा को रोकने में सरकारी स्तर पर प्रयास बौने साबित हुए है। स्वच्छ भारत अभियान के समय भी मैला प्रथा के खात्मे के दावे किये गए थे। लेकिन ये महज दावे ही बनकर रह गए। इस प्रथा को समाप्त करने के लिए हमारी सरकारों के पास कोई एजेंडा नहीं है। और न ही राज्य सरकारें इस कुप्रथा को समाप्त करने की अपनी असफलता को स्वीकार करती हैं। जरूरी है कि ऐसे अदालती आदेशों के बाद इस प्रथा को खत्म करने के लिए सरकारों की ओर से कोई एक निश्चित समय-सीमा निर्धारित हो। क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 में ‘मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार‘ की गारंटी दी गई है। लेकिन हाथ से मैला ढोने की प्रथा इस गारंटी का उल्लंघन है। लोगों को मानवीय गरिमा के साथ जीने के अधिकार की गारंटी तभी मिल पाएगी जब देश में मैनुअल स्कैवेंजिंग एक्ट 2013 का कठोरतम पालन होगा और सिर पर मैला ढोने की प्रथा का पूरी तरह खात्मा हो पाएगा।

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