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Friday, March 29, 2024
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असम सरकार ने क्यों मचाया हाहाकार

 

-वर्षा भम्भाणी मिर्जा

एक समय था जब असम से पूरे देश में संगीत की स्वर लहरियां आती थी। लोहित के किनारों से गूंजती हुई वो मधुर आवाज सबको भावविभोर कर देती, बहती नदियों का सुर खुद-ब-खुद चला आता। फिर कवि की कविता में बुना सवाल आता कि ओ गंगा तुम बहती हो क्यों। भूपेन हजारिका की आवाज ने जैसे हर हिंदुस्तानी को सम्मोहित कर दिया था। फिर एक दिन वह आवाज सो गई। आवाज क्या सोई असम से आते हुए सुर भी पहले शोर और फिर दर्द में बदलने लगे। घृणित सियासी बयानों का अड्डा हो गया यह कोमल प्रदेश। कभी आबादी को खोजो, उसे गिनो और भगाओ के बयान तो कभी उनके लिए तैयार हो गए डिटेंशन कैंपों का ब्योरा।

इन दिनों असम से जो सुनाई दे रहा है वह वहां के लोगों की सिसकियां और चीत्कार हैं। जिन लड़कियों की शादी कानूनी उम्र से पहले हो गई ऐसे बाल विवाह असम में पुलिसिया धरपकड़ का कारण बन गए हैं। अब तक ढाई हजार से ज्यादा गिरफ्तारियां हो चुकी हैं। पुजारी, मौलवी, पादरी सब पर शिकंजा है।

सबसे खराब हालत कम उम्र में ब्याही गई लड़कियों के पिता और पति की हैं। कई जेल में हैं और कइयों पर गिरफ्तारी की तलवार लटकी है। यह डर इतना बड़ा है कि गर्भवती लड़कियां अस्पताल में डिलीवरी भी नहीं करा रही हैं कि कहीं उनकी उम्र का पता न चल जाए और उसके अपने पुलिस के हत्थे न चढ़ जाएं। हालत इतने भयावह हैं कि कुछ तो अपने बच्चे को गर्भ में ही मार डालना चाहती हैं कि कहीं बच्चे का जन्म उनसे कागजात की मांग ना करवा ले।

यह कैसी विडंबना है कि कल्याणकारी राष्ट्र की राज्य सरकारें इस तरह जनता के खिलाफ हो जाती हैं। ऐसी धरपकड़ करती हैं जैसे यह राज्य की जनता नहीं बल्कि क्रूर आतंकवादी हों। बेशक बाल विवाह रोकना हर सरकार का फर्ज है लेकिन डंडे के जोर पर इस सामाजिक और आर्थिक दंश को कैसे दूर किया जा सकता है। जहां शिक्षा बढ़ी है, वहां जागरूकता भी बढ़ी है। यह धरपकड़ जायज है तो फिर अस्सी के दशक में आबादी कम करने का वह अभियान भी सही कहा जाएगा जब लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कर दी जाती थी। यह कैसी सरकारें हैं जो समय-समय पर चोला बदल-बदल कर गरीब आबादी पर दमन का चक्र चलाने के लिए आ जाती हैं।

असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा ने बाल विवाह पर अपनी जीरो टॉलरेंस पॉलिसी की घोषणा कर रखी है। ऐसा उन्होंने बाल विवाह निरोधक अधिनियम (2006) और पॉक्सो एक्ट (2012 ) के तहत किया है। पिछले एक पखवाड़े से ऐसे लोगों की धरपकड़ जारी है जिन्होंने कम उम्र की लड़कियों से शादी की है और जिनके पिताओं ने अपनी कम उम्र बेटियों की शादियां करवाई हैं।

बेशक कम उम्र में लड़की की शादी कमजोर और कुपोषित बच्चे के जन्म के साथ ही मात्र मृत्यु दर के लिए भी जिम्मेदार है। इसके साथ ही गौर करने लायक बात यह भी है कि मां की मौत का जिम्मेदार उसमें खून की कमी का होना भी है। उम्र 19 की रही लेकिन यदि उसे एनीमिया यानी रक्त की कमी है तो बच्चा भी कुपोषित होगा और जच्चा की मौत की आशंका भी बढ़ेगी। मात्र मृत्यु दर, बच्चों में कुपोषण और किसी भी राज्य का स्त्री पुरुष अनुपात उस राज्य के विकास की कहानी कहते हैं। असम का यह रिकॉर्ड अच्छा नहीं है। प्रति एक हजार पुरुषों पर केवल 916 महिलाएं। महिलाओं के लिए काम के अवसर भी लगातार घटे हैं।

हंगर इंडेक्स में भारत के बुरे प्रदर्शन के लिए ऐसे ही राज्य जिम्मेदार हैं नतीजतन हर राज्य इसमें बेहतर होना चाहते हैं लेकिन सवाल यही है कि क्या केरल जो बेहतर आंकड़े देता है वहां क्या उसे लोगों की धरपकड़ ने पहुंचाया है तो आखिर क्यों बिस्वा सरकार यूं दिन-रात एक कर रही है ?

नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक देश में बिहार, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और आंध्र प्रदेश के बाद असम ही है जहां सर्वाधिक बाल विवाह होते हैं। एक सकारात्मक आंकड़ा यह भी है कि यहां 20 से 24 साल की उम्र के बीच शादी करने वाली लड़कियों की संख्या बढ़ी है। 2005 -6 में 39 फीसदी लड़कियां की तुलना में साल 2015 -16 में केवल 33 फीसदी लड़कियों की शादी हुई है। 14 साल से कम उम्र में जिनकी शादी हो जाती है असम में यह संख्या आठ फीसदी है। देश की ऐसी तीन फीसदी लड़कियां असम में हैं जिनकी जल्दी शादी होती है जबकि गुजरात में साढ़े चार फीसदी लड़कियों का बाल विवाह हो जाता है। एक और आंकड़ा भी है। शायद इसी ने असम के मुख्यमंत्री को अपनी जीरो टॉलरेंस नीति को पूरे जोश में लागू करने के लिए प्रेरित किया होगा वह है मुसलमानों की संख्या क्योंकि यहां 48 प्रतिशत लड़कियों की शादी निर्धारित उम्र से पहले हो जाती है। हिंदुओं और ईसाईयों में यह लगभग 24 प्रतिशत है। देश के आकड़े इस बात की भी पुष्टि करते हैं कि गरीब परिवारों में बाल विवाह की दर भी ज्यादा है। आसाम में यह और ज्यादा है। यहां गरीबी में आने वाले 51 फीसदी मुसलमान हैं तो 31 फीसदी हिंदू।

असम में मुसलमान, आदिवासी और चाय बागानों में काम करने वालों और प्रवासी मजदूरों की हालत बहुत खराब हैं। गरीबी और असुरक्षा उन्हें लड़कियों की जल्दी शादी करने पर मजबूर करती है। शादी में देरी पर उन्हें ज्यादा दहेज देना पड़ता है। इन हालातों में जो आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ता उनके स्वास्थ्य का पैमाना बेहतर बनाए रखने में मदद करती थी, अब उनसे ही इन लड़कियों की जानकारी मांगी जा रही हैं, नतीजतन वे वहां से भागने को मजबूर हैं। गर्भवती अस्पताल में दाखिल होने से डर रही हैं क्योंकि उनके पति पर गिरफ्तारी की तलवार लटकी है। पिता के घर हैं तो वहां पिता को गिरफ्तार किया जा रहा है। जबकि इन आकड़ों में सुधार का सीधा ताल्लुक महिलाओं में शिक्षा और रोजगार से जुड़ा है। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर लड़की अपने फैसले करने की हालत में आहिस्ता-आहिस्ता आ ही जाती है। यह डंडे से संभव नहीं इससे अराजकता, डर और नाउम्मीदी की स्थिति ज्यादा बनती है। क्या किसी भी राज्य का मुखिया अपने लिए ऐसे हालात की कल्पना कर सकता है ? असम में तो ऐसे हालात पैदा किये गए हैं। बाल विवाह अपराध है। लेकिन रोकना किस तरह है, शिक्षा से या धरपकड़ से असम के मुख्यमंत्री को अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए।

यह सच है कि राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में अप्रेल माह में पड़ने वाली आखा तीज (अक्षय तृतीया ) पर सर्वाधिक बाल विवाह होते हैं। सरकार इस दिन धरपकड़ भी करती है लेकिन शादी रुकवाने के लिए। ऐसे में ग्रामीणों में डर तो पैदा होता है और बाल विवाह कम होते हैं लेकिन यह किसी और वक्त हो जाते हैं। हालत अराजक भले ही नहीं होते लेकिन बच्चों की शादियों को रुकवाने का सीधा गठजोड़ आर्थिक है। हालात बेहतर होंगे तो एक ही भोज में एकसाथ कई बच्चों की शादियां नहीं निपटाई जाएंगी और लड़की को अगर पढ़ाया जा रहा है तो उसमें खुद भी ऐसा ना होने देने की हिम्मत आ जाती हैं। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता इसमें बड़ी भूमिका निभा सकती हैं। उसके खानपान और स्वास्थ्य को बेहतर कर सकती है। मिड-डे-मील योजनाओं का यही मकसद भी है। जो गिरफ्तारियां ही हल होती तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी ऐसी ही स्वास्थ्य नीति अपनाई होती। पतियों, पिताओं और पंडितों को जेल में डाल देने से महिलाओं की स्थिति ज्यादा खराब हुई है।

भूपेन हजारिका का ही एक और गीत है जिसमें एक स्त्री लहरों के आगे विलाप करती है कि तुम मेरे पति की नैया को सकुशल लौटा लाना लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं होता तूफानी लहरें उसके पति की लाश को लौटाती हैं। (लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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