–प्रेमा धुर्वे, मंजू राजपूत
कहा जा रहा है कि कोरोना की बीमारी सभी लोगों को एक तरह से ही प्रभावित कर रही है। ‘वी आर आल इन इट टुगेदर‘ एक बहुचर्चित कहावत बनती जा रहा है। कोरोना से लड़ने के इस दौर में हम यह भूल रहे हैं कि किसी भी महामारी का प्रभाव इंसान के वर्ग, जाति, सामाजिक स्थिति और उनके लिंग के अनुसार भिन्न होता है। कोरोना के केस में भी स्थिति कुछ ऐसी ही है।
कोरोना से लड़ने की सरकार की योजना और व्यवस्थाओं के कारण जहां एक तरफ प्रवासी मजदूरों को हजारों की तादाद में शहरों से चलकर अपने गांव आने पर मजबूर होना पड़ा, वहीं इन मजदूरों की बड़ी संख्या अब भी शहरों में मौजूद है। अचानक से आई इस आपदा के कारण प्रवासी मजदूरों की तरफ सरकार का अनदेखा बर्ताव अंतरराष्ट्रीय मीडिया के सामने आ गया है। लेकिन, इन मजदूरों के परिवार जो गांवों में हैं, अब भी बड़ी समस्याओं से जूझ रहे हैं, जो कि मीडिया की नजरों में नहीं आ पाए हैं।
इन परिवारों का एक बड़ा हिस्सा हैं इन परिवारों की महिलाएं, जो घरों के पुरुषों की अनुपस्थिति में घर की और बाहर की व्यवस्थाओं को अकेले ही संभाल रही होती हैं। देश में चल रहे लॉकडाउन के चलते, और प्रवासियों के घर लौटने के कारण, ग्रामीण आदिवासी क्षेत्रों में महिलाओं का काम ना सिर्फ बढ़ा है बल्कि महिलाओं को नई तरह की चिंताओं का भी सामना करना पड़ रहा है।
घरेलू हिंसा:
हाल ही में आये डाटा के अनुसार पूरी दुनिया में घरेलू हिंसा के केस तेजी से बढ़ रहे हैं। नेशनल कमीशन ऑफ वीमेन का कहना है कि जो भी केस अभी तक रिपोर्ट हुए हैं वो बड़ी मात्रा में शहरों से आये हुए मुद्दे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है इन केस को रिपोर्ट करने का तरीका, जो कि मोबाइल फोन, वाट्सएप और ईमेल तक सीमित हैं। भारत में सिर्फ 39 प्रतिशत महिलाओं तक ही मोबाइल की पहुंच हैं और 74 प्रतिशत साक्षरता होने के कारण ईमेल का इस्तेमाल भी शहर में रहने वाली महिलाओं तक ही सीमित है। इसके चलते ग्रामीण आदिवासी इलाकों में रह रही महिलाओं की एक बहुत बड़ी आबादी के साथ हो रहे हिंसा के अनुभवों को ना तो समझा जा रहा है और ना ही उनको इससे मुक्त करने की कोशिश की जा रही है। देखने में आ रहा है कि दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी इलाकों में महिलाओं पर सिर्फ घरेलू हिंसा ही नहीं बढ़ी है परंतु सरकार, और पुलिस द्वारा की जा रही हिंसा ने भी एक नया रूप लिया है।
महिलाओं के लिए घर सबसे सुरक्षित जगह नहीं:

कोरोना से बचाव के लिए और उसके रोकथाम के लिए सभी को घरों में रहने का आदेश दिया जा रहा है, लेकिन इस घोषणा के चलते हम भूल रहे हैं कि काफी बार घर, महिलाओं के लिए सबसे सुरक्षित जगह नहीं होती है। जिन परिवारों में घरेलू हिंसा होती आ रही है और उसको करने वाले भी घर के ही लोग हैं। ऐसे में लॉकडाउन की स्थिति एक भयावह रूप ले सकती है।
खेरवाड़ा में जब रमली बाई को 16 अप्रैल की रात को उनके पति ने मारपीट करके घर से निकाल दिया तो वो पैदल पुलिस चैकी पहुंची। पुलिस द्वारा कुछ न किये जाने पर, रमली अपने मां के घर जाने पर मजबूर हो गई।
ऐसा ही कुछ सलूम्बर में रहने वाली मावली बाई के साथ भी हुआ। घर में हो रही रोज-रोज की लड़ाई, घर के काम को लेकर पति और सास के ताने सुन कर उनका मानसिक तनाव इतना बढ़ गया कि उन्होंने खुदखुशी करने की ठानी। गांव के लोगों और उनके पति के आग्रह के बाद मावली बाई मान तो गई लेकिन अब भी वो काफी परेशान हैं।
जहां एक तरफ कोरोना को सार्वजनिक स्वास्थ्य इमरजेंसी बताया जा रहा है, महिलाओं के प्रति बढ़ती हुई हिंसा को देखकर यह कहना गलत नहीं होगा की घरेलू हिंसा भी एक तरह की सार्वजनिक स्वास्थ्य इमरजेंसी का रूप ले लेगी।
बेडावल की इंदिरा कुमारी कहती हैं, ‘खाने में नमक नहीं है तो मुझे ही डांट पड़ती है। अब घर में ही नमक नहीं है तो मैं कहां से इंतजाम करूं इसका, महिला कहां से नमक लेकर आएगी अब?‘ घर की व्यवस्था की जिम्मेदारी महिलाओं पर ही पड़ती है, ऐसे में घर में हर चीज की कमी के लिए भी महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है, जो उनके मानसिक तनाव और डर का कारण बनता जा रहा है।
देश में हुए लॉकडाउन के कारण और सभी प्रकार के काम बंद होने के कारण, राजस्थान के आदिवासी क्षेत्रों में खाने की समस्या बढ़ती जा रही है। ‘देयर ओन कंट्री’ रिपोर्ट से पता चलता है कि दक्षिणी राजस्थान से लगभग 56 प्रतिशत परिवार से कम से कम एक पुरुष तो काम की तलाश में शहर की ओर प्रवास करता है, प्रवास पर निर्भर रहते हैं, जिसमें प्रवास से आने वाली आय परिवार की आय का 70 प्रतिशत हिस्सा बनाती है। ऐसे में काम के बंद होने के कारण इन परिवारों को खाने और पैसे की कमी का सामना करना पड़ रहा है।
एकल महिलाएं/ दिहाड़ी मजदूर– कतार में सबसे पीछे:

बनोड़ा की भूरी बाई कहती हैं, ‘यहां स्थितियां काफी खराब हैं। मैं रोते-रोते काम करती हूं और बच्चों को मारती रहती हूं। कोई है नहीं कुछ कहने के लिए तो सारा गुस्सा बच्चों पर ही निकालती हूं।‘ भूरी बाई एक विधवा हैं और अपने 2 छोटे बच्चों के साथ रहती हैं। भूरी की शादी 18 वर्ष में हो गई थी और शादी के 2 साल के अंदर ही उसने अपने पति को खो दिया। भूरी से जिस दिन फोन पर बात की तो पता चला कि उसने दो दिन से कुछ खाया नहीं था। उजाला समूह की लीडर नारणी बाई उस दिन ही भूरी को कुछ आटा देकर गई थी, जिससे उसका गुजारा चल रहा है। ‘मुझे कोई उधार नहीं देता है, क्यूंकि मेरे घर में कोई कमाने वाला नहीं है, पहले तो मैं मजदूरी करके हम तीनों का पेट पाल रही थी पर अब तो काम भी बंद है तो पैसा कहां से लाऊं। और मुझे मांगने में शर्म आती हैं।‘ भूरी कोरोना की बीमारी को ‘भूख से मरने की बीमारी बताती हैं।‘
“दीदी आप जानती नहीं हो, कोरोना बीमारी को! जिसके कारण पूरा काम बंद है! सब लोग यहां दूर-दूर रहने के लिए कहते हैं। मुंह पर कपड़ा बांध कर रखने को कहते हैं पर कोई भी ये नहीं पूछता कि क्या कोई मुसीबत है? मेरे घर दो टाइम से खाना नहीं बना है। मेरी दोनों बेटियां भूख के मारे खूब रो रही हैं। दो तीन साल के बच्चे को नहीं पता कोरोना क्या है, काम क्यों बंद है?”
देखा जाए तो भूरी के घर कोई भी नहीं जो उसे पीड़ा पहुंचाए या उसके साथ हिंसा करे, पर क्या इस लॉकडाउन के कारण भूरी और उसकी दोनों बेटियों पर हिंसा नहीं हुई? उनके मानसिक, शारीरिक पोषण पर असर पड़ा है। आर्थिक और सामाजिक दबाव के चलते उसे अपनी जरूरत के लिए भी बाहर जाने नहीं दिया जा रहा है। उसकी मूलभूत जरूरतों के लिए भी उसे कितनी वंचनाओं से गुजरना पड़ रहा है।
एकल नारी शक्ति संगठन की संस्थापक गिनी श्रीवास्तव के अनुसार 2011 की जनगणना को देखें तो पता चलता है कि भारत में भूरी जैसी पांच करोड़ से अधिक एकल महिलाएं हैं जो इस लॉकडाउन के कारण मानसिक तकलीफ, आर्थिक वंचना, स्वास्थ्य पोषण, हिंसा जैसी वंचनाओं से गुजर रही होंगी।
नेशनल फोरम फॉर सिंगल वुमन राइट से जुड़ी कार्यकर्ता पारुल चैधरी कहती हैं, “एकल महिलाओं के लिए मुख्य मुद्दा जीवित रहने में सक्षम होना और गरिमा के साथ जीवित रहने में सक्षम होना है।” पारुल कहती हैं, उनमें से कई अकुशल हैं कड़ी मेहनत करती हैं, लेकिन अच्छा भुगतान नहीं मिलता है। कम आमदनी वाली एकल महिलाओं के लिए घर पर रहना कोई विकल्प नहीं है। उन्हें बाहर जाना है और कमाई करना है।
लेकिन अभी की स्थिति के चलते, जब सभी प्रकार का काम बंद है, असंगठित क्षेत्र में अकुशल काम करने वाली मजदूर वर्ग की महिलाओं के लिए एकल महिलाओं (विधवाएं, कभी न विवाहित, तलाकशुदा, परित्यक्तता) के लिए स्थितियां एक भयावह मोड़ ले रही हैं। पैसा कमाने की सीमित क्षमता के कारण, बच्चों की जिम्मेदारी और साथ ही गांव में सीमित पहचान के चलते, एकल महिला वाले परिवारों को काफी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। स्थानीय काम के बंद होने की वजह से कमाने का कोई स्त्रोत नहीं बचा है, साथ ही सालाना आर्थिक संकट के चलते इन परिवारों में बचत की राशि भी ना के बराबर ही होती है। पंचायत की सूची से नाम कटने पर या राशन की मदद ना पहुंचने पर भूरी जैसे परिवार कुछ करने में ज्यादातर असहाय हो गए हैं। यह सबके बाद भी महिला के मुद्दे और खासकर एकल महिलाओं के मुद्दे हमारी विकास की नीतियों में कभी नहीं झलकते हैं।
बढ़ता हुआ काम का भार:

‘पहले हम दिन में बस 2 बार ही पानी लाते थे, पर अब पूरे दिन बस यही काम रहता है क्योंकि सब लोग घर पर ही होते हैं।‘ बारोलिया की कमला बाई कहती हैं। पहले की तुलना में घर का अवैतनिक और देखभाल करने का काम बढ़ गया है। ‘पुलिस के डर से हम अपने गाय और बकरियों को चराने भी नहीं लेकर जा पा रहे हैं। इसलिए उनके लिए भी घर पर ही घास काट कर लानी पड़ती है।‘ कमला बाई और उनके आस-पास की पंचायतों में पुलिस का डर इतना बढ़ गया है कि लोग अपने घर से बाहर ही नहीं निकल पा रहे हैं। सबके घर दूर-दूर होने के बाद भी काफी सख्ती लोगों के साथ हुई है, जिससे महिलाओं में डर तो है ही पर पुलिस की नजर से बचकर काम करने की चिंता भी लगी रहती है।
इसके साथ ही गोगुंदा ब्लाॅक की एक महिला ने कहा कि क्या करे मेरे पति पहले दिहाड़ी जाते थे तो थोड़ा बहुत कमा लाते थे पर अभी तो कुछ भी काम नहीं है। वे घर पर ही रहते हैं और घर में शक्कर नहीं है, तेल नहीं था, तो झगड़ा करने लग गए। मैं सुबह उठकर गांव में जाकर लोगों के खेतो में मजदूरी करके 60 रुपए कमा कर लाई हूं जबकि घर में खाने वाले 8 सदस्य हैं।
ग्लोबल मैकेंसी की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में 75 फीसद अवैतनिक काम- बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल, साफ-सफाई, खाना पकाना- महिलाओं द्वारा किया जाता है। यह काम वैश्विक जीडीपी के 13 फीसद के बराबर है लेकिन इस काम का मूल्यांकन कभी भी जीडीपी में नहीं होता है। 2017 की विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार 1993-1994 से 2011 और 2012 के बीच भारत की महिला श्रम शक्ति भागीदारी 42.6 फीसद से गिरकर 31.2 फीसद हो गई है।
नारीवादी अर्थशास्त्री ऋतु दीवान कहती हैं कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं अधिक लंबे समय तक काम करती हैं लेकिन इसका एक बड़ा हिस्सा अदृश्य रहता है- जैसे लकड़ी लाना, पानी लाना, आदि निशुल्क कार्य हैं। वे कहती हैं कि अगर महिलाओं के अवैतनिक काम को ध्यान में एफएलपी (महिला श्रम शक्ति भागीदारी) देखी जाए तो वो वास्तव में पुरुषों से छह अंक आगे निकल जाएगी।
कोरोना के बाद हुए लॉकडाउन में कहा जा रहा है कि आर्थिक मंदी आ गई है क्योंकि सभी वैतनिक काम बंद हैं। हम यह देखने में चूक रहे हैं कि काम बंद नहीं हुआ है। बस अवैतनिक, अदृश्य और घर के भीतर महिलाओं द्वारा पहले की तुलना में कहीं ज्यादा काम किया जा रहा है। (लेखिकाद्वय आजीविका ब्यूरो से सम्बद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हैं) (उपरोक्त लेख पहले जनपथ में भी प्रकाशित हो चुका है)