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Monday, December 9, 2024
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गहलोत की मुख्यमंत्री पद पर बने रहने की जीद (राजहठ) ने कांग्रेस को राजस्थान में कमजोर करके रख दिया

 

अशफाक कायमखानी

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस के 2013 का आम विधानसभा चुनाव कांग्रेस की पांच साल सरकार चलने के कामकाज के आंकलन पर लड़ने से आए परिणाम में मात्र 21 सीट पर आकर अटक जाने के बाद कांग्रेस हाईकमान ने पार्टी को संभालने के लिए अशोक गहलोत के बजाय सचिन पायलट को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर दिल्ली से राजस्थान भेजा। पायलट के अध्यक्ष पद पर पदस्थापित होते ही राजस्थान में जगह-जगह घूम-घूम कर पार्टी के लिए मेहनत करने व जनता की नब्ज टटोलने के बाद बनाई सकारात्मक कार्य योजना पर अमल करने पर पहले विधानसभा उपचुनाव जीते फिर अजमेर-अलवर लोकसभा के उपचुनाव भी जीत कर कांग्रेस की राजस्थान में वापसी का स्पष्ट संकेत दिया। उपचुनाव जीतने के बाद कांग्रेस कार्यकर्ताओं में नए जोश का संचार होने से उनका मनोबल फिर से आसमान छूने लगा।

पायलट के प्रदेश अध्यक्ष बनने पर विपरीत परिस्थितियों में विधानसभा व लोकसभा के उपचुनाव जीतने के बावजूद वो खुश होकर घर नहीं बैठे। बल्कि लगातार जनता के मध्य रहकर राजनीतिक तौर पर मेहनत करने का परिणाम यह आया कि 2018 में आम विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिलने के बाद मुख्यमंत्री बनने का उन्होंने दावा ठोका तो दिल्ली में बैठे नेताओं ने उनके दावे को ठुकरा कर राजस्थान की जनता पर अशोक गहलोत को थोप दिया। सचिन पायलट का दावा मजबूत होने के बावजूद पहले दो दफा इसी तरह गहलोत के मुख्यमंत्री बनने के बावजूद ऐन-केन गहलोत ही फिर मुख्यमंत्री बन गए जबकि इसके विपरीत कांग्रेस का मतदाता व राजस्थान की जनता मात्र सचिन पायलट को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाह रही थी।

अगर अशोक गहलोत उस समय तीसरी दफा मुख्यमंत्री बनने की जिद्द नहीं करके पद मोह त्याग कर सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाकर स्वयं कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में जाकर पार्टी के लिए काम करते तो आज कांग्रेस पार्टी के लिए बेहतर साबित होता।

अशोक गहलोत की राजनीति की शुरुआत कांग्रेस की भारत में सत्ता होने के साथ हुई। उनका अधिकांश समय सत्ता के साथ, सत्ता सुख में गुजरा है। पहली दफा साल 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद विपक्ष की राजनीति में कांग्रेस के आने पर उनके बिना सत्ता के सुख के गुजरने लगा तो जिद्द करके राजस्थान के मुख्यमंत्री बनकर सत्ता सुख भोगने लग गए। गहलोत ने आज कहा कि पिछले डेढ़ साल में उनकी सचिन पायलट से बात तक नहीं हुई है। यह बड़ा सोचनीय विषय है कि मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री में आपस में संवाद तक नहीं हो रहा तो पार्टी की हालात क्या हो सकती है।

कांग्रेस पार्टी की मरकजी लीडरशिप साल 2014 के बाद से काफी कमजोर हो गई लगती है। वहां अधिकांश उन नेताओं का फोकस बन चुका है जो जनता में जाकर सीधे तौर पर विधानसभा व लोकसभा चुनाव लड़ने की हिम्मत तक जुटा नहीं पाते हैं। केवल मात्र वे नेता एक दूसरे के लिए राज्यसभा जाने का रास्ता बनाने में लगे रहते हैं। उनके अपने नेता के प्रति आदर व सम्मान की असलियत भी तब सामने आई जब लोकसभा चुनाव में पार्टी की बुरी तरह हार हुई। तत्त्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने हार के लिए अपनी जिम्मेदारी को माना और अध्यक्ष पद से त्याग पत्र देने पर उनके पीछे त्याग पत्र देने या यह कहो कि उनका अनुशरण करने वाले उनकी पार्टी कांग्रेस में एक भी नेता सामने नहीं आया। वर्किंग कमेटी की मीटिंग में स्वयं राहुल गांधी का इस मामले में दुख भी झलका था।

अशोक गहलोत की तरह ही मध्यप्रदेश में कांग्रेस के कमलनाथ व दिग्विजय सिंह के जिद्द करने का परिणाम यह निकल कर आया कि सत्ता हाथ से फिसल गई एवं अब एक दो दिन में कोई ना कोई कांग्रेस विधायक अपने विधायक पद से त्याग पत्र देकर कांग्रेस को मुश्किल में डाल रहे हैं। इसी तरह कांग्रेस ने बंगाल में ममता बनर्जी के साथ किया था। उसके बाद ममता बनर्जी ने अपनी अलग पार्टी बनाकर सत्ता पर काबिज होकर कांग्रेस को वहां की राजनीतिक के परिदृश्य से एक तरह से बाहर कर दिया। इसी तरह आंध्रप्रदेश में वाई आर शेखर रेड्डी के बेटे जगन रेड्डी के साथ कांग्रेस ने बर्ताव किया। जगन रेड्डी ने संघर्ष करके सत्ता पर काबिज होकर आंध्र की राजनीति से कांग्रेस को आउट कर दिया है।

राहुल गांधी को अपनी दादी इंदिरा गांधी की तरह इस समय कड़े फैसले लेकर दिल्ली में जनता के मध्य जाकर सीधे चुनाव ना लड़कर राज्यसभा के रास्ते आने वाले नेताओं से छुटकारा पाकर संघर्षों को तरजीह देने वाले नेताओं को आगे लाकर जनता के मध्य रहकर काम करना होगा। वरना कांग्रेस रसातल में धसती ही चली जाएगी। राजनीति में जो युवा आता है वो अब ज्यादा दिन रुक नहीं पाता है। क्योंकि वो जब सत्ता लाने में संघर्ष करता है तो पार्टी के सत्ता में आने पर वो सत्ता में अपनी जायज हिस्सेदारी भी चाहता है जबकि कांग्रेस नेता आप भी मुस्लिम समुदाय की तरह युवाओं को मात्र गारंटेड वोट बैंक बनाकर रखने की कोशिश करते है। जो पूरी तरह बदल चुकी आज के राजनीतिक सिस्टम में कतई संभव नहीं है।

कुल मिलाकर यह है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत आज भी कांग्रेस की बजाय स्वयं के नेतृत्व व सत्ता को बचाए रखने के लिए हर तरह के प्रयास व साधनों का उपयोग करते नजर आ रहे हैं। विधायकों को होटल में एक तरह से कैद करके रख रखा है। बताते हैं कि होटल में कड़ी सुरक्षा के बीच रह रहे अपने समर्थक विधायकों के मध्य प्रदेश में अनेक तरह से विवादों में रहने वाले जैसलमेर के गाजी फकीर से मिलते है। जिसके लोग अनेक तरह के अर्थ अपने-अपने तरीकों से निकाल रहे हैं। कन्हैया कुमार व उनके साथियों पर दिल्ली पुलिस द्वारा 124ए लगाने पर कांग्रेस सहित अधिकांश दल व नेताओं सहित सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कड़ा विरोध किया था। उसी 124ए का उपयोग जब अशोक गहलोत की सरकार अपने ही दल के साथी नेताओं के लिए करती है। पता लगता है गहलोत सत्ता की जंग में कहां तक जा सकते हैं।

गहलोत-पायलट में जारी सत्ता संघर्ष में नजर आ रहा है कि गहलोत उक्त मसले का पटाक्षेप सरकारी एजेंसियों की जांच के मार्फत करना चाहते हैं और पायलट अब जाकर न्यायालय के मार्फत करना चाह रहे हैं।  असल फैसला सदन के पटल पर होना है जहां अभी गहलोत व पायलट खेमे में से कोई भी फिलहाल तैयार नजर नहीं लगता है। देखते हैं कि आखिर कब दो खेमे में बंटे कांग्रेस विधायकों को बाड़ेबंदी से छुटकारा मिल पाता है। दूसरी तरफ चर्चा का विषय बनी सोशल मीडिया पर जारी ऑडियो टेप मामले में कांग्रेस व भाजपा नेताओं ने अलग-अलग शिकायत दर्ज करवाई है।(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

 

बाबूलाल नागा
बाबूलाल नागाhttps://bharatupdate.com
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